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________________ ४६० [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ नरेश को युद्ध में मार दिये जाने और राज्य पर अधिकार कर लिये जाने के अनन्तर पंचाश्रय के शिशु राजकुमार वनराज का चैत्यवासी आचार्य शीलगुणसूरि और उनके पट्ट शिष्य देवचन्द्रसूरि ने पालन किया । वनराज को उन्होंने समुचित शिक्षा देकर सुयोग्य बनाया । वनराज ने अपने पैत्रिक राज्य पर अधिकार कर लेने के पश्चात् अपने परमोपकारी चैत्यवासी आचार्य शीलगुणसूरि एवं देवचन्द्रसूरि के प्रति जीवन भर कृतज्ञ रहते हुए चैत्यवासी परम्परा के उत्कर्ष के लिए अनेक कार्य किये । वनराज ने अपने उपकारी गुरु की चैत्यवासी परम्परा के सम्मान को सुदीर्घकाल तक अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए इस प्रकार की एक राजाज्ञा प्रसारित की कि अहिल्लपुर पट्टण राज्य की सीमा में केवल शीलगुणसूरि की चैत्यवासी परम्परा के तथा उनके द्वारा सम्मत साधु-साध्वी ही विचरण कर सकेंगे। जैन संघ की शेष सभी परम्पराओं के साधु-साध्वी पाटण राज्य की सीमा में प्रवेश तक नहीं कर सकेंगे । एक राजा द्वारा प्रसारित की गई राजाज्ञा का पश्चाद्वर्ती सभी नरेशों द्वारा सम्मान किया जाता है । इस प्रकार की स्थिति में हमारे न्याय प्रिय नरेश्वर से हमारी यही प्रार्थना है कि प्राचीन काल में महाराज वनराज द्वारा प्रसारित की गई राजाज्ञा का अक्षरश: पालन करवाया जाय ।" दुर्लभराज ने ध्यानपूर्वक चैत्यवासियों की बात सुनने के पश्चात् कहा" हम अपने पूर्व के शासकों द्वारा निर्धारित मर्यादाओं का सम्मान करते हैं । किन्तु इसका यह अर्थ न लगाया जाय कि हम गुरणी महापुरुषों के गुणों की पूजा से विमुख रहें, उनके गुणों की पूजा न करें । वस्तुतः सुशासन तो सभी महापुरुषों से प्राशीर्वाद प्राप्त करने का अभिलाषी रहता है ।" जैन वांग्मय के अध्ययन - पर्यालोचन से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि एतद्विषयक जितने भी प्राचीन उल्लेख वर्तमान में उपलब्ध हैं, उनमें ऊपर लिखे गये विवरण में तो सामान्यतः मतैक्य है । इससे आगे के घटनाचक्र का जो वर्णन दिया गया है, उसमें थोड़ा अन्तर दृष्टिगोचर होता है । उस अन्तर के पीछे भी एक ऐसा बहुत बड़ा कारण छिपा हुआ प्रतीत होता है, जिस पर प्रकाश डालने का आगे प्रयास किया जायगा । इस विषय में सर्वाधिक लोक विदित उल्लेख है खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली का । वह सार रूप में इस प्रकार है : "चैत्यवासी परम्परा के चौरासी मतों के अधिष्ठाता आचार्य जिनचन्द्र के शिष्य वर्द्धमान को शास्त्रों (दशवैकालिक प्रादि) का अध्ययन करते समय जब आगम प्रतिपादित विशुद्ध श्रमणाचार के सम्बन्ध में थोड़ा बोध हुआ तो वे गुरु को निवेदन कर कतिपय साथी चैत्यवासी साधुत्रों के साथ चैत्यवासी परम्परा का परित्याग कर विशुद्ध श्रमरणाचार का पालन करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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