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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ 1 [ ४५६ ध्याय श्री धर्मसागरगरण ने यह सिद्ध करने का पूरा प्रयास किया है कि चालुक्यराज दुर्लभराज ने जिनेश्वरसूरि अथवा उनके साधु-साध्वी समूह को खरतर विरुद्ध प्रदान नहीं किया । इसके विपरीत जिनदत्तसूरि के प्रत्युग्र स्वभाव एवं प्रतिपरुष ( कटु- कठोर ) संभाषरण के परिणामस्वरूप लोगों ने उन्हें "खरतर " सम्बोधन से श्रभिहित करना प्रारम्भ किया और इस प्रकार कालान्तर में जिनदत्तसूरि का गच्छ "खरतरगच्छ" के नाम से लोगों में रूढ अथवा प्रख्यात हो गया । खरतरगच्छ अपनी इस मान्यता की पुष्टि में उपाध्याय श्री धर्मसागरगरण ने प्रमुख युक्ति यह दी है कि यदि चालुक्यराज की सभा में जिनेश्वरसूरि को "खरतर " विरुद प्रदान किया गया होता तो प्रभाचन्द्रसूरि ने अपनी ऐतिहासिक कृति प्रभावक चरित्र में एवं जिनचन्द्रसूरि, ग्रभयदेवसूरि, गुणचन्द्रसूरि, जिनवल्लभसूरि और जिनदत्तसूरि ने अपनी-अपनी कृतियों में एतद्विषयक प्रसंग पर अथवा प्रशस्तियों में खरतर विरुद प्रदान का अवश्यमेव उल्लेख किया होता । किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया । इससे यही सिद्ध होता है कि दुर्लभराज ने जिनेश्वरसूरि को किसी प्रकार का कोई विरुद प्रदान नहीं किया । उपरिवरित पक्ष और विपक्ष के परस्पर विरोधी दो प्रकार के उल्लेखों के आधार पर कोई सर्वसम्मत निर्णय नहीं किया जा सकता । सर्वसम्मत समाधान के लिए तो हमें इस प्रश्न की पृष्ठभूमि में गहराई तक उतरकर निष्पक्ष दृष्टिकोण से विचार करना होगा । यह तो एक ऐतिहासिक तथ्य है कि विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी में वर्द्धमानसूरि ने अपने चैत्यवासी गुरु जिनचन्द्राचार्य से पृथक् हो उनकी चैत्यवासी परम्परा का परित्याग कर एक ऐसी सुविहित श्रमण परम्परा को जन्म दिया जिसने जैन संघ में महान् धर्मक्रान्ति के सूत्रपात के माध्यम से चैत्यवासी परम्परा के वर्चस्व को समाप्त कर कतिपय अंशों में जैनधर्म के मूल स्वरूप की और विशुद्ध श्रमणाचार की रक्षा की। उन्होंने चैत्यवासियों के सर्वोच्च शक्तिशाली एवं दुर्भय सुदृढ़ गढ़ हिल्लपुर पट्टण में प्रवेश किया, जहां चैत्यवासियों ने शताब्दियों पूर्व शीलगुणसूरि की चैत्यवासी परम्परा द्वारा सम्मत साधु-साध्वियों के प्रतिरिक्त अन्य सभी श्रमण परम्पराओंों के साधु-साध्वियों के प्रवेश पर राजाज्ञा के माध्यम से प्रतिबन्ध लगवा दिया गया था । प्राचीन जैन वांग्मय में इस बात की साक्षी विद्यमान है कि चैत्यवासियों ने राजाज्ञा के विरुद्ध वर्द्धमानसूरि के अणहिल्लपुर पट्टण में प्रवेश का डटकर विरोध किया । इस प्रकार का विरोध सहज स्वाभाविक भी था । पाटण के चालुक्य नरेश दुर्लभराज के राजमान्य राजपुरोहित द्वारा वर्द्धमानसूरि का पक्ष लिये जाने पर चैत्यवासियों ने दुर्लभराज के समक्ष न्याय के लिए प्रार्थना प्रस्तुत करते हुए निवेदन किया :- "शत्रुओं द्वारा पंचाश्रय राज्य के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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