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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] महाराजा कुमारपाल . [ ४३५ . जैन मुनि एक वैश्या को उसके द्वार के सम्मुख अपनी दक्षिण बाहु के पार्श्व में आबद्ध किये और हाथ में ताम्बूल लिये खड़ा उससे मधुरालाप कर रहा है । मुनि को इस प्रकार की अवस्था में देखकर हाथी के कपोल द्वय के मध्यभाग में अपना मस्तक टिकाते हुए राजा ने उस मुनि को श्रद्धापूर्वक वहीं से वन्दन किया। राजा को इस प्रकार वन्दन करते देखकर राजा के सेनापतियों, सैनिकों, सामन्तों और स्वयं उस साधु तक को बड़ा आश्चर्य हुआ। महाराज कुमारपाल के पृष्ठभाग में बैठे नाडोल के नृपति ने सस्मित मुद्रा में एक मीठी चुटकी ली । मन्त्री वाग्भट्ट ने प्राचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि की सेवा में उपस्थित हो चालुक्यराज द्वारा एक पतित मुनि को वन्दन करने विषयक वृतान्त सुनाया । जब परमाहत महाराज कुमारपाल आचार्यश्री की सेवा में . वन्दन-नमन हेतु उपस्थित हुआ तो उसके पास आते ही आचार्यश्री ने निम्नलिखित गाथा का उच्चारण किया : पासत्थाइ वंदमाणस्य, नेव कित्ती न निज्जरा होइ। कायकिलेसं एमेव, कुरणइ” तह कम्मबंधं वा ।।७८१॥ -प्रभावक चरित्र, पृष्ठ २०९ अर्थात् जो व्यक्ति शिथिलाचार-मग्न चरित्रहीन व्यक्ति को वन्दन नमन करता है, न तो उसके कर्मों की निर्जरा होती है और न उसे यशप्राप्ति ही। ऐसे चरित्रहीन साधुवेषधर को वन्दन करने से वह व्यक्ति वृथा ही कायाक्लेश करता है और इसके साथ-साथ कर्म बन्ध भी करता है। कुमारपाल तत्काल समझ गया कि किसी ने प्राचार्यदेव को उसके द्वारा . उस मुनि को वन्दन करने की घटना की जानकारी दे दी है, जो मुनि वैश्या को अपनी भुजपाश में समेटे खड़ा था। कुमारपाल ने प्रगाढ़ श्रद्धापूर्वक आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि को वन्दन करने के पश्चात् निवेदन किया : - "भगवन् ! मैंने उस साधु को शिक्षा देने और पुनः सुधारने के उद्देश्य से ही ऐसा किया था।" उधर वह साधु परमार्हत कुमारपाल के नमस्कार से हतप्रभ एवं चमत्कृत हो उठा । उसके अन्तर्मन में विचारों का प्रवाह आन्दोलित हो उठा। उसने मन ही मन सोचा-कुमारपाल जैसे परमाहत एवं परम जिनशासन भक्त ने मेरे साधुवेष को .. देखकर मुझे नमस्कार किया है। मैं कितना पतित हं कि भगवान् तीर्थंकर के वेष को लज्जित कर रहा हूं। वीतराग की आज्ञा का मैंने उल्लंघन किया है । जिन भोगों को मैंने त्याग दिया, उन वमन किये हुए भोगों को मैं पुनः भोग रहा हूं। मुझ जैसे भ्रष्टप्रतिज्ञ को धिक्कार है। इस प्रकार मन में विचार आते ही उसने तत्काल उस वारांगना की कटि में डाले हुए अपने भुजदण्ड को अपनी ओर खींच लिया-हटा लिया। व्रत के लिये कंटक स्वरूप उस ताम्बूल को उसने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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