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________________ ४३२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ के जन्मदाताओं ने श्रावक-श्राविका वर्ग के लिए उत्तरासंग अथवा अंचल से वन्दन करने का विधान किया हो । विधिपक्ष गच्छ की उपर्यु ल्लिखित गाथा संख्या ११० में प्राचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि के मुख से--"जिनवयणेसा मुद्दा परम्परा एस तुम्हाणं" यह जो कहलवाया गया है, इसके पीछे यही भावना है कि जिन वचन से ही अर्थात् जिनेन्द्र प्रभु के कथन के अनुसार ही ये लोग मुखवस्त्रिका के स्थान पर अंचल रखकर मुनि-वन्दन करते हैं । विधिपक्ष गच्छ पट्टावली में तथा मह उत्तरसंगरण य छव्विहमावस्सयं कुणंतो सो। ॥५८।। मह उत्तरसंगणं दुअआलसावत्तवंदणं सड्ढो । ॥६ ॥ इन दो गाथाद्धों में श्रावक के लिये स्पष्टतः यही विधान किया गया है कि वह उत्तरासंग से ही वंदन करे किन्तु इसके पीछे कोई शास्त्रीय प्रमाण नहीं दिया गया है। इससे भी यही विदित होता है कि शास्त्रों में नरेन्द्र-देवेन्द्रों द्वारा उत्तरासंग से प्रभु वन्दन के उल्लेखों को दृष्टिगत रखते हुए ही सम्भवतः विधि पक्ष गच्छ में उत्तरासंग से ही वन्दन करने का श्रावकों के लिए विधान रखा गया है। प्राचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि ने कवडि श्रावक द्वारा उन्हें अंचल से वन्दन करने के सम्बन्ध में कुमारपाल के समक्ष विधि पक्ष पट्टावलीकार के अनुसार इस प्रकार स्पष्टीकरण किया : "सीमन्धर वयणायो, चक्केसरी कहण सुद्ध किरियाए। सिद्धत सुत्तरत्तो विहिमग्गं, सो पयासेई ॥११२।। सीमन्धर स्वामी के मुखारविन्द से विजयचन्द्र साधु की (प्राचार्य की) प्रशंसा सुनकर चक्रेश्वरी देवी ने आचार्य श्री विजयचन्द्रसूरि से शुद्ध क्रिया को पुनः प्रकाश में लाने की प्रार्थना की। तदनुसार आगमों के प्रति निष्ठा रखते हुए विजयचन्द्रसूरि ने विधि मार्ग को प्रकाशित किया।" इसके उपरान्त भी महाराजा कुमारपाल के गले परम्परागत मान्यता के विरुद्ध वह बात नहीं उतरी और उसने विधिपक्ष गच्छ का नाम अंचलगच्छ रख ही दिया। परमाहत महाराजा कुमारपाल अष्टपुटी मुखवस्त्रिका से गुरुवन्दन करने की परम्परा का प्रबल पक्षधर था । वह स्वयं मुखवस्त्रिका से ही गुरुवन्दन करता और दूसरों से भी अष्टपुटी मुखव स्त्रिका के द्वारा ही वन्दन करवाता था । अंचलगच्छ के प्रादुर्भाव के अनन्तर तो, जैन वांङ्मय में कतिपय उल्लेखों को देखते हुए यह अनुमान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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