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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] . महाराजा कुमारपाल [ ४३१ पर महाराज कुमारपाल ने कहा-प्राचार्य देव ! परम्परागत मार्ग तो वस्तुतः अपना एक पृथक् ही (महत्वपूर्ण) स्थान रखता है।" ___ इस पर प्राचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि ने (विधि पक्ष-गच्छ पट्टावली के उल्लेखानुसार) विजयचन्द्रसूरि की प्रशंसा करते हुए कहा-"राजन् ! सीमन्धर स्वामी ने अपने समवसरण में विजयचन्द्रसूरि की शुद्ध क्रिया-निष्ठा की प्रशंसा की थी। चक्रेश्वरी देवी के माध्यम से विहरमान तीर्थंकर महाप्रभु सीमन्धर स्वामी से प्राप्त निर्देशों के अनुसार ही विजयचन्द्रसूरि ने विधि-मार्ग को प्रकाशित किया है।" आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि के मुखारविन्द से इस प्रकार की बात सुनने के उपरान्त भी महाराज कुमारपाल ने विधि-पक्ष को अंचलगच्छ नाम दिया। एतद्विषयक विधि पक्ष-गच्छ पट्टावली को गाथाएं इस प्रकार हैं : अह अन्नया नरेसो मुहपत्तीए करेइ किइ कम्म । विहिपक्खिकवडिसावय उत्तरसंगण तं वियरइ ।।१०।। एवं किमिइ निवेण य, पुट्टो सिरि हेमसूरि वच्चेइ । जिणवयणेसा मुद्दा, परम्परा एस तुम्हाणं ।।११०।। तत्तो भरगइ राया, परम्परा मग्गो य एगत्थं । कीरइ सूरी वच्चइ, महिमा सिरि विजयचंदस्स ॥१११।। सीमंधर वयणाओ, चक्केसरी कहण सुद्धकिरियाए। सिद्धंत सुत्तरत्तो, विहिमग्गं सो पगासेइ ॥११२।। पच्छा निवेण तस्स वि, अंचलगण नाम सिरिपहेण कयं । ॥११३।। उपयुंल्लिखित विवरण से यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि महाराज कुमारपाल जैनधर्म के अटूट आस्थावान् श्रावक वरेण्य थे। वे जैनधर्म संघ में एकरूपता देखने के उत्कट अभिलषुक थे और परम्परागत मान्यतामों के प्रबल पक्षधर थे। जैनागमों में यत्र-तत्र नरेन्द्र देवेन्द्र एवं श्रावक धाविकादि का जहां भी प्रभु वन्दन का प्रासंगिक उल्लेख पाता है वहाँ प्रायः उत्तरासंग से प्रभु वन्दन का ' उल्लेख उपलब्ध होता है। यद्यपि विधिपक्ष गच्छ की, उत्तरासंग से वन्दन करने विषयक प्रमुख मान्यता के पक्ष में, आगमिक वचन का उल्लेख अंचलगच्छीय साहित्य में कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता तथापि यही अनुमान किया जाता है कि शास्त्रों में स्थान-स्थान पर उत्तरासंग से ही श्रावकों द्वारा प्रभु वन्दन किये जाने के जो उल्लेख हैं, उन्हीं को दृष्टिगत रखते हुए सम्भवतः विधिपक्ष गच्छ १. विधि पक्ष मपर नाम अंचलगच्छ एवं श्री कीरवंश पट्टावली, अप्रकाशित हस्तलिखित प्रति प्राचार्यश्री विनयचन्द ज्ञान भण्डार, जयपुर में उपलब्ध । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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