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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि ने कुछ क्षण राजा की मुख मुद्रा पर दृष्टि जमाये विचार कर कहा-"राजन् ! पुराणों और विभिन्न दर्शनों की कोई बात न कहकर मैं सोमेश्वर को ही तुम्हें प्रत्यक्ष में दिखाता हूं, जिससे कि तुम स्वयं उनके मुख से ही मुक्ति के मार्ग को सुन और समझ सको।"
"क्या सोमेश्वर देव के साक्षात् दर्शन भी सम्भव हैं ?" इस प्रकार के विस्मय सागर में निमग्न कुमारपाल को हेमचन्द्रसूरि ने कहा-"राजन् ! हम दोनों का देव यहां अदृष्य रूप में विद्यमान है। यदि हम दोनों निश्चल, निष्छल मुद्रा में एकाग्र मन से उसकी आराधना करें तो हमें सहज ही देव के दर्शन हो सकते हैं । मैं ध्यान मग्न हो उस देव का आह्वान करता हूं। आप काले अगुरु का धूप कीजिये । आप काले अगर का तब तक धूप देते रहना जब तक कि सोमेश्वर स्वयं यहां प्रकट होकर तुम्हें धूप देने का निषेध न करें।"
। तदनन्तर प्राचार्य ने पद्मासन लगा चित्त को एकाग्र कर ध्यान लगाया और कुमारपाल ने काले अगर का अग्नि पर धूप देना प्रारम्भ किया। राजा द्वारा इस प्रकार निरन्तर धूप दिये जाने पर गर्भ गृह काले अगरु के धूम्र के घटाटोप से आच्छन्न हो गया और समस्त दीपशिखाएं बुझ गई। गर्भ गृह में घनान्धकार का एक दम साम्राज्य व्याप्त हो गया। इस प्रकार के घनान्धकार में राजा को प्रकाश प्रकट होता हुआ दिखाई दिया। राजा ने तत्काल धूम्र से पूरित अपनी आंखों को करतल युगल से मसलकर ज्योंही आखें खोली तो सोमेश्वर के लिंग पर गिरती हुई जलधारा पर विशुद्ध जाम्बुनद जाति के स्वर्ण की क्रान्ति वाला, चर्म चक्षुषों से दुरवलोकनीय अप्रतिम अनुपम मनोहारी स्वरूप वाला एक तपस्वी उसे दृष्टिगोचर हुआ । कुमारपाल ने उसे पैर से लेकर जटाजूट तक स्पर्श किया और जब उसे यह विश्वास हो गया कि यहां देवाधिदेव प्रकट हुए हैं तो उसने साष्टांग प्रणाम करते हुए निवेदन किया- "हे जगदीश्वर ! आपके दर्शनों से मेरी दोनों आंखें पवित्र हो गई। अब आप मुझे आदेश देकर मेरे कर्ण युगल को भी कृतार्थ कर दीजिये।
तत्काल उस दिव्य तपस्वी के मुख से दिव्य ध्वनि प्रकट हुई-"राजन् ! यह महर्षि सब देवताओं का अवतार है। भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों काल के भाव को हथेली पर रक्खे हुए मोती की भांति देखने जानने वाला ब्रह्मज्ञानी है। यह जो तुम्हें बताये वही असंदिग्ध एवं सच्चा मुक्ति-मार्ग है।
इस प्रकार कहकर शंकर के अदृश्य हो जाने पर कुमारपाल उनमना हो गया। उसी समय प्राणायाम द्वारा निरुद्ध पवन को निश्वास के रूप में छोड़ते हुए आसनबन्ध को शिथिल करते हए आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि ने कुमारपाल को 'राजन् !' इस सम्बोधन से सम्बोधित किया। कुमारपाल को अपने इष्टदेव के मुख से प्राचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि का वास्तविक स्वरूप ज्ञात हो गया था। अतः उसने
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