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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] सिद्धराज जयर्यासह । ३८५ प्रधानामात्य शान्तु ने तत्काल मालवराज यशोवर्मा के पैरों को जल से प्रक्षालित किया । तदनन्तर अपने दक्षिण कर की अंजलि में जल लिया और महाराजा जयसिंह द्वारा उपार्जित किये गये सोमेश्वर देव की यात्रा के पुण्य को संकल्पपूर्वक मालवेश्वर यशोवर्मा को प्रदान करते हुए अंजलि का जल छोड़ दिया। इससे संतुष्ट हो यशोवर्मा अपनी विशाल वाहिनी के साथ तत्काल मालव राज्य की ओर लौट गया। अपनी माता को सोमेश्वर की यात्रा करवा देने के अनन्तर पत्तन लौटने पर जब सिद्धराज को यह विदित हुआ कि उनके महामन्त्री शान्तु ने उनके द्वारा की गई सोमेश्वर की यात्रा का पुण्य मालवराज को समर्पित कर दिया है तो वह बड़ा क्रुद्ध हुआ और उसने शान्तु को बुलाकर उसे इसका कारण पूछा। महामात्य शान्तु ने अतीव विनम्र, शान्त एवं गम्भीर स्वर में उत्तर देते हुए कहा :-"पृथ्वीनाथ ! मेरे द्वारा दान कर देने मात्र से यदि आपका पुण्य किसी और के पास चला जाता हो तो न केवल यशोवर्मा के पुण्य को ही अपितु विश्व भर के पुण्यशाली पुरुषों का सम्पूर्ण सुकृत मैं आपको इसी समय संकल्प पूर्वक समर्पित करने के लिये समुद्यत हूं। अथवा यह समझ लीजिये कि मैंने संसार का समस्त पुण्य आपको प्रदान कर दिया। राज राजेश्वर ! अपने शत्रु को येन केन उपायेन यथाशीघ्र अपने देश की भूमि में प्रविष्ट न होने देना, यही राजनीति का सबसे पहला गुरुमन्त्र है।" अपने महामात्य के उत्तर से महाराजा जयसिंह का क्रोध शांत हो गया । किन्तु "मालवराज ने उस समय गुर्जर राज्य पर आक्रमण किया जिस समय मैं अपनी माता के साथ भगवान् सोमेश्वर की यात्रा के लिये गया हुआ था" इस विचार से वह यशोवर्मा पर बड़ा क्रुद्ध हुआ और उसने उसके इस दुस्साहस का प्रतिशोध लेने की ठानी। यूद्ध की पूरी तैयारी कर लेने के अनन्तर एक दिन महाराज जयसिंह ने एक शक्तिशाली विशाल चतुरंगिणी सेना के साथ मालवराज की राजधानी धारानगरी की ओर प्रस्थान किया । जयसिंह की शक्तिशाली सेना मालव सेना को पराजित करती हुई धारानगरी की ओर द्रुतगति से बढ़ती ही गई। यशोवर्मा ने शत्रु की प्रबल सैन्य शक्ति को दुर्दान्त एवं अजेय समझ रणस्थली से पलायन कर अपनी सेना के साथ अपनी राजधानी धारानगरी में प्रवेश किया और नगर के परकोटे के लोह कपाटों को बन्द कर नगर के प्राकार की प्रतोलियों एवं प्राचीरों पर अपनी पूरी सैनिक शक्ति को शत्रु से लोहा लेने के लिये आदेश दिया । गुर्जराधीश ने नगर को चारों ओर से घेर कर नगर में प्रवेश का प्राणपण से प्रयास किया किन्तु नगर के परकोटे की प्रतोलियों पर सन्नद्ध यशोवर्मा के सैनिकों ने गुर्जर सेना को भीषण शस्त्रास्त्रों की वर्षा कर प्राकार के पास तक नहीं फटकने दिया। 'प्रबन्ध चिन्तामणि' के रचनाकार के अनुसार लगभग बारह वर्ष तक सिद्धराज जयसिंह की सेनाओं ने नगर को घेरे रक्खा और अगणित बार नगर के प्रकोष्ठ को तोड़ कर नगर में प्रवेश करने के अथक प्रयास किये किन्तु नगर के दुर्भेद्य प्राकार एवं मालव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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