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________________ पौर्णमीयक गच्छ [ ३२६ गुरु भ्राता उपाध्याय विनयचन्द्र के शिष्य मुनिचन्द्र को प्राचार्य पद के सर्वथा सुयोग्य समझकर अपना उत्तराधिकारी पट्टधर घोषित किया । मुनिचन्द्रसूरि ने वादि वैताल शान्तिसूरि के पास प्रमाण - शास्त्र का अध्ययन किया । शान्तिसूरि अपने ३२ शिष्यों को न्याय ( प्रमाण ) शास्त्र का अध्ययन करवा रहे थे, उस समय मुनिचन्द्रसूरि ने भी बड़े ध्यान के साथ शान्तिसूरि द्वारा दी गई वाचनाओं को सुना । शान्तिसूरि द्वारा उन वाचनाओं के अनन्तर पूछे गये प्रश्नों का जब उनका कोई शिष्य उत्तर न दे सका, तब मुनिचन्द्रसूरि ने शान्तिसूरि की अनुज्ञा से उन प्रश्नों का बड़े ही संतोषप्रद ढंग से उत्तर दिया । एक ही बार सुनी हुई वाचना के आधार पर मुनिचन्द्रसूरि द्वारा दिये गये जटिल न्याय विषय के प्रति सुन्दर उत्तर सुनकर शान्तिसूरि बड़े प्रभावित व प्रसन्न हुए और उन्होंने बड़ी रुचि के साथ मुनिचन्द्रसूरि को न्यायशास्त्र का अध्ययन करवाया । " सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] "चालुक्यराज कर्ण के शासनकाल में श्री चन्द्रप्रभसूरि, मुनिचन्द्रसूरि, देवसूरि और शान्तिसूरि नामक चार साधु एक ही गुरु ( उपाध्याय विनयचन्द्र ) के शिष्य थे । एक समय श्रीधर नामक एक समृद्धिशाली श्रावक ने जिनेन्द्रप्रभु की प्रतिमा की प्रतिष्ठापना करने का निश्चय किया । आचार्य चन्द्रप्रभ इन चारों में बड़े थे इसलिए वह श्रावक उनकी सेवा में गया और निवेदन किया- “भगवन्! मैं जिनेन्द्रप्रभु की मूर्ति की प्रतिष्ठापना करना चाहता हूं । अतः प्राप कृपा कर मुनिचन्द्रसूरि को प्रतिष्ठा करने की प्राज्ञा प्रदान करें ।" यह सुनकर श्राचार्य चन्द्रप्रभ के मन में मुनिचन्द्रसूरि के प्रति बड़े प्रबल वेग से ईर्ष्या जागृत हुई। उन्होंने मन ही मन सोचा - " मैं दीक्षा आदि की दृष्टि से मुनिचन्द्र की अपेक्षा बड़ा हूं । तथापि मेरी अवमानना कर मुनिचन्द्रसूरि से प्रतिष्ठा करवाने का उपक्रम किया जा रहा है । " प्रकट में चन्द्रप्रभाचार्य ने उत्तर दिया – “विज्ञ श्रावक ! विधिपूर्वक प्रतिष्ठा करवाओ । आगमों में कहीं भी साधु द्वारा प्रतिष्ठा किये जाने का उल्लेख नहीं है । वस्तुतः प्रतिष्ठा कार्य द्रव्यस्तव की कोटि में आता है । अतः प्रतिष्ठा करवाना श्रावक का ही युक्तिसंगत कर्त्तव्य है । साधु का कदापि नहीं ।" इस प्रकार विक्रम सम्वत् १९४६ में चन्द्रप्रभाचार्य ने इस भांति की प्ररूपणा की कि मूर्ति की प्रतिष्ठा श्रावक द्वारा ही की जाय, न कि मुनि द्वारा । संघ ने चन्द्रप्रभाचार्य की उपेक्षापूर्वक अवमानना की और प्रतिष्ठा कार्य मुनि चन्द्रसूरि से ही करवाया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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