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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
उपरिलिखित तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर यही प्रतीत होता है कि पौर्णमीयक गच्छ की उत्पत्ति के पीछे भी बहुत बड़ा कारण क्रियोद्धार का ही रहा है। सर्वज्ञप्रणीत जिनागमों में प्रगाढ़ आस्था रखने वाले श्रमणोत्तमों ने चैत्यवासियों के चरमोत्कर्ष काल में श्रमणाचार में प्रविष्ट हुए शिथिलाचार को दूर करने के लिये समय-समय पर अनेक बार क्रियोद्धार किये । उसी क्रियोद्धार की प्रक्रिया में पौर्णमीयक मत की उत्पत्ति हुई।
विक्रम सम्वत् ११४६ में बड़गच्छ की पट्टावली के अनुसार श्रमण भगवान् महावीर के ४०वें पट्टधर (मुनि सुन्दरसूरि द्वारा रचित गुर्वावली पट्ट परम्परा 'सूरिनामानि'-के अनुसार ४१वें पट्टधर)' मुनिचन्द्रसूरि के गुरुभ्राता चन्द्रप्रभसूरि ने प्राचार्यों अथवा मुनियों द्वारा जिन-प्रतिमा की प्रतिष्ठा किये जाने का विरोध करते हुए घोषणा की कि प्रतिष्ठा करवाना वस्तुतः मुनियों का कार्य नहीं है, श्रावकों का कर्तव्य है । आचार्य चन्द्रप्रभ की इस मान्यता का बड़गच्छ के प्राचार्य एवं अनुयायियों ने कड़ा विरोध किया । इस विरोध के परिणामस्वरूप प्राचार्य चन्द्रप्रभ ने बड़गच्छ का परित्याग कर स्थान-स्थान पर अपनी मान्यता का प्रचार-प्रसार करना प्रारम्भ किया । चन्द्रप्रभ आचार्य भी अपने समय के एक उद्भट विद्वान् और यशस्वी ग्रन्थकार थे। जैन संघ में साधुओं द्वारा की जाने वाली प्रतिमा प्रतिष्ठा की प्रक्रिया अथवा परिपाटी का विरोध करते हुए प्राचार्य चन्द्रप्रभ ने कहा :-"प्रतिष्ठा करवाना साधुओं का कार्य नहीं है क्योंकि प्रतिष्ठा करवाना वस्तुतः द्रव्यस्तव है, इसमें पुष्पों, सचित्त जल आदि से प्रतिष्ठा करवाई जाती है, जो साधु के पंच महाव्रतों में से प्रथम अहिंसा महाव्रत के नितान्त प्रतिकूल है।"
स्वल्प समय में ही प्राचार्य चन्द्रप्रभ के अनुयायियों की संख्या में ग्राणातीत अभिवृद्धि हुई और विक्रम सम्वत् ११५६ में उन्होंने पूर्णिमा को ही पाक्षिक प्रतिक्रमण करने, पंचमी को सांवत्सरिक पर्व मनाने एवं मूत्ति की प्रतिष्ठा मुनि न करे, श्रावक करे, इन मान्यताओं के साथ पौर्णमीयक गच्छ की स्थापना की।
इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर यह प्रकट होता है कि प्राचार्य चन्द्रप्रभ ने क्रियोद्धार तो विक्रम सम्वत् ११४६ में किया, किन्तु विधिवत् अपने पृथक् गच्छ “पौर्णमीयक गच्छ” की स्थापना उन्होंने क्रियोद्धार के दस वर्ष पश्चात् विक्रम सम्वत् ११५६ में की।
पौर्णमीयक गच्छ की स्थापना के सम्बन्ध में तपागच्छीय पट्टावलियों में निम्नलिखित आशय का विवरण उपलब्ध होता है :
. "श्रमण भगवान् महावीर के चालीसवें पट्टधर श्री यशोभद्रसूरि और
श्री नेमिचन्द्रसूरि नामक दो विद्वान् प्राचार्य हुए। नेमिचन्द्रसूरि ने अपने . १. पट्टावली समुच्चय, पृष्ठ ३४, मुनि दर्शन विजयजी
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