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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] पौर्णमीयक गच्छ [ ३२५ प्रकार चन्द्रप्रभसूरि ने विधि मार्ग का भार वहन कर उसका उद्धार कर दिया। जो कि किसी अन्य के वश का कार्य नहीं था। ऐसे वे चन्द्रप्रभसूरि सब का कल्याण करें। पूर्णिमा पक्ष के संस्थापक तदनुसार पूर्णिमा पक्ष के प्रथम प्राचार्य चन्द्रप्रभसूरि ने चतुर्दशी को पाक्षिक प्रतिक्रमण की मान्यता वाले अनेक प्राचार्यों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। उनमें से पांच प्राचार्यों को अपने मत में दीक्षित किया। ___चन्द्रप्रभसूरि के प्राचार्यपद पर आसीन होने से पूर्व जैन धर्मसंघ में मूत्तियों की प्रतिष्ठा कुछ अपवादों को छोड़कर प्रायः नियमित रूप से साधुओं द्वारा ही की जाती थीं। उस समय तक सुविहित परम्परा के विभिन्न गच्छों में भी अनुमानतः चैत्यवासी परम्परा द्वारा प्रचलित को गई प्रतिष्ठाविधियों का ही प्रचलन था। आचार्य श्री पादलिप्तसूरि द्वारा निर्मित प्रतिष्ठाविधि में प्रतिष्ठाचार्य को सधवा स्त्रियों के हाथों अभ्यंग आदि करवाने के अनन्तर बहुमूल्य सुन्दर वस्त्र पहनाने तथा कर में स्वर्ण कंकण और स्वर्ण की अंगूठी पहनाने का विधान है । अतः सुविहित परम्परा में भी प्रतिष्ठाचार्य को सुन्दर वस्त्र, कर में स्वर्ण कंकरण अंगुलि में स्वर्ण की मुद्रिका पहनाने का प्रचलन रहा। चन्द्रप्रभसूरि ने इसे श्रमणाचार से नितान्त विरुद्ध एवं अनागमिक सिद्ध करते हुए एक नवोन क्रान्ति का सूत्रपात किया कि जिन बिम्ब की प्रतिष्ठा साधु के द्वारा नहीं, अपितु श्रावक के द्वारा ही करवाई जानी चाहिये। इसे लेकर चन्द्रप्रभसूरि का चारों ओर से घोर विरोध हुआ। चतुर्दशी को पाक्षिक प्रतिक्रमण करने वालों की, चौथ को सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करने की परम्परा को मानने वालों की संख्या भी अत्यधिक थी। इस कारण चन्द्रप्रभसूरि का घर और बाहर अर्थात् सुविहित परम्परा के विविध गच्छों के प्राचार्यों एवं चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्यों के द्वारा भी घोर विरोध हया। इस प्रकार के प्रबल विरोध का साहसपूर्वक सामना करते हुए चन्द्रप्रभसूरि ने पौर्णमीयक गच्छ का प्रचार प्रसार और विस्तार किया। प्राचार्य श्री चन्द्रप्रभसूरि द्वारा पौर्णमीयक गच्छ की स्थापना किये जाने के समय तक अरणहिल्लपुर पट्टण के संघ पर चैत्यवासी परम्परा का ही वर्चस्व था। उस समय तक चैत्यवासी परम्परा पर्याप्त रूप से सशक्त थी तथा उसे राज्याश्रय भी प्राप्त था इस कारण भी चन्द्रप्रभसूरि को बहुत समय तक अपनी मान्यताओं के प्रचार के लिये चैत्यवासियों एवं सुविहित परम्परा के अनेक सुगठित एवं सशक्त गच्छों की ओर से कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। आचार्यश्री श्रीचन्दसूरि, श्री जिनप्रभसूरि और वर्द्धमानसूरि ने भी चैत्यवासी परम्परा की प्रतिष्ठाविधि में उल्लिखित-"वासुकिनिर्मोकल धुनी प्रत्यग्रवाससी दधानः करांगुली विन्यस्तकाञ्चनमुद्रिकः, प्रकोष्ठदेशनियोजित कनककंकणः, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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