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________________ ३२४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ अर्थात् पूर्णिमा पक्ष रूपी कमलिनी को अपने उपदेश रूपी शीतल किरणों से प्रफुल्लित कर देने वाले एवं समस्त शास्त्रों के तलस्पर्शी ज्ञाता श्री चन्द्र गच्छ रूपी सागर को अपनी शुभ्र छटा से उद्वेलित कर देने वाले चन्द्रप्रभसूरि सदा जयवन्त रहें। आगमिक गच्छीय पट्टावली के नाम से जो यह पूणिमा गच्छ की पावली दी गई है, इसमें पूर्णिमा गच्छ का श्रमण भगवान् महावीर की विशुद्ध मूल परम्परा से सम्बन्ध बताया गया है। इसमें श्रमण भगवान महावीर के प्रथम पट्टधर सुधर्मा स्वामी से लेकर चन्द्रसूरि तक के पट्टधरों के नामोल्लेख के पश्चात् यह बताया गया है कि चन्द्रसूरि से चन्द्रगच्छ का प्रादुर्भाव हुआ। चन्द्रगच्छ में अनेक प्रभावक आचार्य हुए। कालान्तर में चन्द्रगच्छ वृहद्गच्छ के रूप में प्रसिद्ध हुआ । उस वृहद्गच्छ में जयसिंहसूरि हुए। जयसिंहसूरि ने चन्द्रप्रभसूरि को प्राचार्यपद प्रदान किया। इन्हीं चन्द्रप्रभसूरि ने आगमानुसारी विधिमार्ग का उद्धार किया। आपने पूर्णिमा के स्थान पर जो चतुर्दशी को पाक्षिक प्रतिक्रमण करने की प्रथा परम्परा से चली आ रही थी, उसके स्थान पर पूर्णिमा को पाक्षिक प्रतिक्रमण करने वाले पूर्णिमा गच्छ की स्थापना की । इस सम्बन्ध में उपर्युक्त पट्टावली में निम्नलिखित श्लोकों द्वारा चन्द्रप्रभसूरि की मुख्य मान्यताओं का संक्षेप में उल्लेख किया गया है : बंधः पुण्येषु नैवोपधिषु सुविधिषु स्थापनं नो जिनेषु, श्राद्धस्वान्तेषु नित्य स्थिति सचितपुरग्रामगोष्ठेषु नैव । तृष्णा ज्ञानामृतेषु प्रणतजन पुरस्कार सौख्येषु नैव, सर्वज्ञोक्तेष्वपेक्षा न च धनिषु मुनिस्वामिना येन चक्रे ॥२८॥ कैलाशं दशकण्ठवत् गिरिवरं गोवर्द्धनं विष्णुवत्, क्षोणिमादिवराहवद्गुरुधुरंधौरेय वृद्धोक्षवत् । योऽन्यैर्दुर्द्धरमुद्दधार विधिवत् पक्षं विधे/रधीः, - श्रीचन्द्रप्रभ सूरिरद्य भवतां भद्राय भूयात् प्रभुः ।।२६॥ अर्थात् पुण्य का बन्ध उपधियों में नहीं, जिन बिम्ब की स्थापना में नहीं सुविधि में-अर्थात् प्रागमोक्ता विधि के अनुसार क्रिया करने में है। अपनी इन्द्रियों को अन्तर्मुखी करना ही श्रावक का लक्षण है, बहिर्मुखी करना नहीं। तृष्णा का शमन ज्ञानामृत से ही सकता है। लोगों के नमस्कार से उत्पन्न होने वाले सुख से नहीं। प्रत्येक मोक्षार्थी को सर्वज्ञ वीतराग प्रभु के वचन की ही अपेक्षा रखनी चाहिये, न कि धनियों की । इस प्रकार की घोषणा चंद्रप्रभसूरि ने की। जिस प्रकार कैलास को रावण ने, गोवर्द्धन को कृष्ण ने, पृथ्वी को आदिवराह ने एक धुरा धौरेय वृषभ की भांति अपने ऊपर धारण कर लिया, उसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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