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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
और वस्त्रों की ओर से अपना ध्यान हटाकर आध्यात्म रस में लीन हो शास्त्रोक्त विधि से विशुद्ध श्रमरणाचार का पालन करना प्रारम्भ किया हो तो महाराजा सिद्धराज द्वारा भी इस उपाधि के दिये जाने की कल्पना की जा सकती है । अस्तु । मलधारी की उपाधि चाहे महाराजा कर्ण ने दी हो अथवा महाराजा सिद्धराज ने पर यह तो सुनिश्चित है कि उनके समय के गुर्जरेश्वर ने उनके पूर्व त्याग से प्रभावित होकर भक्तिवश इस प्रकार की पदवी प्रदान की ।
आपके प्रशिष्य मुनि श्रीचन्द्र द्वारा रचित मुनि सुव्रत चरित्र प्रशस्ति के अनुसार महाराजा सिद्धराज प्रापके प्रति और आपके शिष्य मलधारी हेमचन्द्र आचार्य के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा रखता था । उक्त प्रशस्ति के उल्लेखानुसार मलधारी अभयदेवसूरि ने संलेखनापूर्वक ४७ दिन का अनशन किया। आपके अनशन के समाचार सुनकर महाराजा सिद्धराज आपके दर्शनार्थ अजमेर में उपस्थित हुये थे । " श्री जैन धर्म विद्या प्रसारक वर्ग पालीताना " की ओर से प्रकाशित जैन इतिहास नामक पुस्तक के उल्लेखानुसार आपने अनेक राजाओं को प्रतिबोध दिया । ४१ दिन का अनशन पूर्ण होने पर आपके भौतिक शरीर की श्मशानयात्रा में अजमेर नगर का निवासी प्रत्येक आबाल वृद्ध उमड़ पड़ा। शव यात्रा सूर्योदय के समय प्रारम्भ हुई किन्तु स्थान-स्थान पर उमड़ती भीड़ के कारण दिन के पिछले प्रहर में शवयात्रा श्मशान में पहुंची । अग्नि संस्कार के अनन्तर उनके भौतिक शरीर की अवशिष्ट भस्म को लेने के लिए अजमेर और उसके आसपास के नागरिक उमड़ पड़े । लोगों के मन में इस प्रकार की धारणा घर कर गई थी कि इन महान् त्यागी योगीश्वर की भस्मी से सभी प्रकार के रोग शान्त हो जावेंगे । फलतः भस्मी के समाप्त हो जाने पर लोगों ने उनके दाह संस्कार स्थल की मिट्टी तक को खोद-खोदकर ले जाना प्रारम्भ कर दिया और वहां एक गहरा गड्ढा तक बन गया ।
"मलधारी अभयदेवसूरि के पार्थिव शरीर की न केवल भस्म ही अपितु उनके दाह संस्कार स्थल की मिट्टी तक लोग खोद-खोद कर ले गये और उस स्थान पर एक गहरा गड्ढा हो गया ।" जैन वांग्मय के इस उल्लेख से यही प्रतिभासित होता है कि जन-जन के मानस में उनके प्रति प्रगाढ़ प्रास्था एवं अटूट श्रद्धा भक्ति थी । उस समय के जैन-अजैन सभी लोग समान रूप से उन्हें अपने युग की महान् विभूति, महान् योगी और महापुरुष समझते थे । इससे यही प्रकट होता है कि उन्होंने अपने त्याग और तप से जन-जन के मन पर अपने पवित्र जीवन की अमिट छाप अंकित कर दी थी । उनके मलधारी विरुद से स्पष्टतः यही प्रकट होता है कि उनकी प्रवृत्तियां पूर्णतः अन्तर्मुखी हो गई थीं । अपने वस्त्र और शरीर तक की उपेक्षा कर उन्होंने अपने आत्म देव को सत्यं शिवं सुन्दरं का स्वरूप प्रदान करने की अटल प्रतिज्ञा कर ली थी। अपने समय के श्रमरण वर्ग की बहिर्मुखी, लोकैषरणा परक वृत्तियों का पूर्णतः परित्याग कर एक मात्र अध्यात्म परक विशुद्ध श्रमणाचार को अपने जीवन में आपने साकार रूप से ढाल लिया था ।
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