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________________ २६८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ अभ्युदयोत्कर्ष आप ही के पांडित्यपूर्ण पौरुष पर निर्भर करता है । हमने महाराज सिद्धराज जयसिंह को सब कुछ निवेदन कर दिया है । हम • आपकी विजय को अपनी विजय समझते हुए आपके श्रागमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। तीन सौ श्रावकों और सात सौ श्राविकाओं ने आपकी विजय की कामना के साथ प्रचाम्ल व्रत करना प्रारम्भ कर दिया है ताकि इस तपश्चरण के प्रभाव से शासनदेवी आपको अपने प्रतिपक्षियों का पराभव करने के लिये बल प्रदान करे ।” इस संघादेश के प्राप्त होते ही महावादी देवाचार्य ने उस दूत को निर्देश दिया कि वह दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र के पास जाकर उन्हें उनका यह सन्देश सुनावे"मैं महाराज सिद्धराज जयसिंह की सभा में श्रापके साथ शास्त्रार्थ करने के लिये जा रहा हूं । हम दोनों द्वारा अपने-अपने पक्ष की पुष्टि के लिये प्रस्तुत किये गये प्रमाणों पर निर्णय कर जयाजय की न्यायपूर्ण घोषणा करेंगे ।" दूत ने तत्काल दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र के पास जाकर उनका सन्देश सुनाया । देवसूरि के सन्देश को कुमुदचन्द्र ने सावधानीपूर्वक सुना और उसके उत्तर मेंदूत से कहा :- " मैं भी अरगहिल्लपुर पट्टण शीघ्र ही पहुंचूंगा ।" इस प्रकार का उत्तर देते ही दिगम्बराचार्य को छींक हुई। दूत ने इसे दिगम्बराचार्य के लिये अपशकुन समझा और देवसूरि के पास आकर दूत ने समस्त विवरण सुना दिया । तदनन्तर शुभ घड़ी शुभ मुहूर्त्त में देवसूरि ने अरणहिल्लपुर पट्टरण की ओर विहार किया । विहार करते ही उन्हें तत्काल अनेक प्रकार श्रेष्ठतम शुभ शकुन हुए । उनका दाहिना नेत्र फरकने लगा । इसी प्रकार के अनेक शुभ शकुनों के बीच कर्णावतीपुरी से प्रस्थान कर आचार्य देवसूरि विहार क्रम से अरग हिल्लपुर पट्टण पहुंचे । पारण के संघ ने बड़े ही हर्षोल्लास के साथ देवसूरि के नगर प्रवेश का महोत्सव किया । कुछ समय पश्चात् दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र भी अनहिलपुरपत्तन पहुंच गये । तदनन्तर एक दिन देवसूरि महाराजा सिद्धराज जयसिंह से मिले और दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र के सम्बन्ध में उपरिवरिणत पूर्ण विवरण संक्षेपतः उन्हें सुनाया । पत्तनपति जयसिंह से बात कर लेने के पश्चात् देवसूरि ने मागधमुख्य (दूत) को दिगम्बराचार्य श्री कुमुदचन्द्र के पास जाकर उन्हें अपना यह संदेश सुनाने को कहा : "देवसूरि ने आपको यह सन्देश कहलवाया है कि आप मद का परित्याग कर श्रमणोचित शमभाव को धारण करें । मद वस्तुतः मानवमात्र के लिये घोर दुःख का कारण है । जिस रावरण की त्रेसठ शलाका पुरुषों में गरणना की जाती है, उसकी भी मद के कारण कैसी दुर्दशा हुई, यह तो सर्वविदित ही है ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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