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________________ २९६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ "किसी न किसी प्रकार देवसूरि को उत्तेजित कर, उसको अधिकाधिक मानसिक पीड़ा पहुंचा कर उसे विक्षुब्ध कर दिया जाय जिससे कि हमें यह भलीभांति विदित हो जाय कि वह कितने गहरे पानी में है, उसमें कितना बल और सामर्थ्य है ?"-इस प्रकार विचार कर दिगम्बर आचार्य कुमुदचन्द्र ने अपने उपासकों को आदेश दिया कि गली कूचों में, राजमार्ग पर इन श्वेताम्बर साधुओं को देखते ही उनके साथ इस प्रकार का व्यवहार किया और कराया जाय कि उनका अपने स्थान से बाहर निकलना दूभर हो जाय । इस प्रकार अपने उपासकों को आदेश देकर अपने नग्न स्वरूप के अनुरूप ही नग्न अर्थात् हीन चेष्टाएं प्रारम्भ कर दीं। एक दिन देवसूरि के श्रमणी संघ की एक वयोवृद्धा को मधुकरी हेतु अपने चैत्य के आगे से जाती हुई देखकर कुमुदचन्द्र के उपासकों ने उसे अनेक प्रकार के उपसर्ग पहुंचाने प्रारम्भ किये । कुमुदचन्द्र के इंगित पर उसके लोगों ने उस वृद्धा साध्वी को ऊपर उठाकर एक कुण्ड में फेंक दिया। उसे नृत्य करने के लिये बाध्य कर दिया। इस प्रकार एक वयोवृद्धा साध्वी के साथ किये गये अभद्र और निंद्य व्यवहार को देखकर समस्त नागरिक कुमुदचन्द्र की बुराई करते हुए उसे कोसने लगे। नगर भर में पलक झपकते ही उसकी अपकीत्ति फैल गई। कतिपय प्रमुख नागरिकों ने वृद्धा आर्या की दयनीय दशा से द्रवित होकर उन दुष्टों के पंजे से उसे येन-केन-प्रकारेण छुड़ाया। अपमानिता वृद्धा प्रार्या वहां से तत्काल देवसूरि के उपाश्रय में गई और उनके समक्ष दिगम्बर आचार्य द्वारा करवाये गये प्रति हीन अभद्र व्यवहार की व्यथा-कथा अवरुद्ध कंठ से सुनाने लगी। सूरि ने उससे पूछा :-"प्रापका इस प्रकार का अपमान किसने और किस कारण से किया ?" जरा जर्जरिता आर्या ने आवेशवशात् प्रकम्पित आक्रोशपूर्ण स्वर में देवसूरि के समक्ष कहना प्रारम्भ किया :-."मेरे गुरुदेव ने तुम्हें बड़ा किया, पढ़ाया और सूरि पद पर भी आपको अधिष्ठित किया। क्या उन्होंने यह सब कुछ हमारी इस प्रकार की विडम्बना करवाने के लिये किया था ? उस वीभत्स स्वरूप वाले नग्नाट ने मुझे राजमार्ग पर जाती देखकर अपने शिष्यवृन्द के द्वारा बलात् पकड़वा कर मुझे इस प्रकार प्रपीडित और अपमानित करवाया है। तुम्हारी यह विद्वत्ता किस काम की, जो अपने आश्रितों की रक्षा नहीं कर सके, हाथ में धारण किये हुए उस शस्त्र से क्या प्रयोजन जो शत्रु का संहार न कर सके। शम भाव की ठण्डी बेल के फल पराभव और अपमान के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकते । शीतलता का पुज चन्द्र राहु द्वारा उसकी इच्छा के अनुसार पुनः पुनः नसा ही जाता आया है । सूरि ! कान खोलकर सून लो कि यह तुम्हारे पराक्रम और पांडित्य का परीक्षा काल है। यदि इस समय तुमने अपनी विद्वत्ता और शक्ति का प्रदर्शन नहीं किया तो वे सब निष्फल-निरर्थक सिद्ध होंगे। धन-धान्य के शुष्क हो जाने पर जिस प्रकार वर्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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