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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] वादिदेवसूरि . । २६५ तुम्हारी लेशमात्र भी रुचि है तो हम तुम्हें यह सच्ची बात बता रहे हैं कि महावादी दिगम्बराचार्य के चरणकमलों की सेवा में निरत रह रात-दिन उनका ध्यान करो। देवसूरि के प्रमुख शिष्य आशुकवि माणिक्यमुनि इस तिरस्कारपूर्ण गर्वोक्ति को सहन नहीं कर सके और उन्होंने तत्काल उस श्लोक के उत्तर में निम्नलिखित श्लोक घनरव गम्भीर स्वर में सुनाया :क: कण्ठीरवकण्ठकेसरसटाभासं स्पृशत्यह्रिणा, कः कुन्तेन शितेन नेत्रकुहरे कण्डूयनं कांक्षति । कः सन्नह्यति पन्नगेश्वरशिरोरत्नावतंश श्रिये, यः श्वेताम्बरदर्शनस्य कुरुते वन्द्यस्य निन्दामिमाम् ।।६४।। अर्थात्-जो मूर्ख वनराज केसरीसिंह की ग्रीवा पर सुशोभित अयाल अर्थात् केसरंसन्निभ केसराशि को पैर से छुने का दुस्साहस कर सकता है, जो मूढ़ तीक्ष्ण भाले से अपने नेत्रयुगल को खुजलाने की मूर्खता कर सकता है, और जो मुग्धमना विमूढ़ शेषनाग के शिर की मरिण को हस्तगत करने के लिये नागराज के फरण की ओर अपना हाथ बढ़ाने को समुद्यत होता है, वही मूर्ख वन्दनीय श्वेताम्बर दर्शन अर्थात् धर्म की इस प्रकार निन्दा करता है। देवसूरि ने अपने शिष्य माणिक्य मुनि को शांत करते हुए कहा- "दुर्वचन बोलने वाले दुर्जनों पर कभी कोप नहीं करना चाहिए क्योंकि उनका तो स्वभाव ही इस प्रकार के वचन बोलने का है।" यह सुनकर प्राचार्य कुमुदचन्द्र द्वारा भेजे गये उस वन्दिराज ने कहा :-- "हमारे महावादी प्राचार्य कुमुदचन्द्र श्वेताम्बर रूपी चने को बड़ी रुचि के साथ चर जाने वाले अश्वराज हैं, श्वेताम्बर सम्प्रदाय रूप अन्धकार को विनष्ट करने वाले सूर्य, श्वेताम्बर रूपी मच्छर भगा देने वाले धूम्रपुज और श्वेताम्बरों को जगज्जनों का हास्यपात्र बनाने वाले प्रहसन के सूत्रधार हैं अतः इस प्रकार के वचनाडम्बर से कोई कार्य सिद्ध होने वाला नहीं है । सार रूप में आप उन्हें क्या कहलवाना चाहते हो, वही मुझे बता दो। देवसूरि ने उस वन्दी को कहा-तुम तो मेरे भाई उस कुमुदचन्द्र को मेरी अोर से यही कहना- "हे दिगम्बर शिरोमणि ! गुणों से विमुख मत बनो, मद का परित्याग कर अपने गुणों को शांति और संयम के रंग में रंजित करो क्योंकि वस्तुतः इन्द्रिय दमन-कषाय मर्दन ही मुनियों का भूषण है और वह भूषण मद के परित्याग के अनन्तर ही प्राप्त किया जा सकता है।" जब वन्दिराज ने देवरि का उपर्युक्त सन्देश दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र को सुनाया तो उन्होंने वन्दी से कहा- "मूर्ख साधु का उत्तर शम अर्थात् शान्ति के अतिरिक्त और हो ही क्या सकता है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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