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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग-४ उसे वह ग्रंथ बड़ा ही महत्त्वपूर्ण व रोचक लगा । ज्यों-ज्यों वह चच्चरी टिप्पणक को पढ़ता गया त्यों-त्यों उसकी शंकाओं का समाधान होता गया। आद्योपान्त पढ़ लेने के पश्चात् उसके मन में केवल दो शंकाएँ ही अवशिष्ट रह गईं, पहली तो अनायतन बिम्ब सम्बन्धी और दूसरी स्त्री द्वारा जिन पूजा न करने सम्बन्धी ।
- बागड़ प्रदेश में विहार करते समय श्री जिनदत्तसूरि ने उन साधु-साध्वियों को अपने पास बुला लिया, जिन्हें कि उज्जैन अध्ययनार्थ भेजा था। उन सबको और अपने अन्य साधु साध्वियों को श्री जिनदत्तसूरि ने शास्त्रों की वाचनाएँ प्रदान की। इस समय तक खरतरगच्छ का श्रमण-श्रमणी समूह पर्याप्तरूपेण विशाल हो गया था । अनुशासन, अध्ययन, अध्यापन, विभिन्न क्षेत्रों में धर्म प्रचार, ज्ञान, दर्शन, चारित्र की समीचीन रूप से आराधना-परिपालना आदि सभी तथ्यों को दृष्टिगत रखते . हुए जिनदत्तसूरि ने अपने हस्त-दीक्षित शिष्य जीवदेव को आचार्य पद प्रदान किया । अपने शिक्षा गुरु हरिसिंहाचार्य एवं मुनिचन्द्र उपाध्याय के जयसिंह नामक शिष्य को भी प्राचार्य पद प्रदान कर उन्हें चित्तौड़ क्षेत्र में विचरण एवं धर्मप्रचार करते रहने का आदेश दिया। जयसिंहाचार्य के शिष्य जयचन्द्र को भी आपने आचार्यपद प्रदान कर पत्तन में धर्म प्रचार के लिए नियत किया ।
इस प्रकार तीन विद्वान् मुनियों को सूरिपद प्रदान करने के साथ-साथ जिनचन्द्रगणि, शीलभद्रगणि आदि १० विद्वान् शिष्यों को आपने वाचनाचार्य पद, श्रीमती, जिनमती, पूर्णश्री, जिनश्री और ज्ञानश्री, इन पांच विदुषी साध्वियों को महत्तरा पद एवं जीवानंद नामक अपने विद्वान् शिष्य को उपाध्याय पद प्रदान किया। अपने इन सब पदाधिकारियों को उनके कर्तव्यों और विहार क्षेत्रों के सम्बन्ध में आवश्यक निर्देश देकर उन्हें उन निर्दिष्ट क्षेत्रों की ओर विहार करने का आदेश दे स्वयं जिनदत्तसूरि ने अजमेर की ओर प्रस्थान किया। अजमेर पहुंचने पर श्रावकों ने बड़े ठाट और उत्सव के साथ आपका नगर प्रवेश करवाया। जिनदत्तसूरि के पहली बार अजमेर नगर में आगमन के अवसर परमहाराजा अर्णोराज ने अजमेर के दक्षिण दिग्विभाग में पर्वत की तलहटी से लेकर पर्वत की चोटी तक जो विशाल भू-भाग जैन समाज को प्रदान किया था, वहां श्रावक वर्ग ने जिन मन्दिरों, अम्बिका के स्थान आदि का निर्माण जिनदत्तसूरि के पुनः पदार्पण से पूर्व ही सम्पन्न करवा लिया था। जिनदत्तसूरि ने शुभ मुहूर्त में उन मन्दिरों के मूल निवेश में वासक्षेप किया। अजमेर के समाजाग्रणी प्रमुख श्रावक प्रासल ने जैन संघ के भावी अभ्युदय हेतु अपना ७ वर्ष का अल्पवयस्क पुत्र श्री जिनदत्तसूरि को समर्पित किया। वि० सं० १२०३ की फाल्गुन शुक्ला 8 के दिन श्री जिनदत्तसूरि ने पासल के पुत्र को अजमेर में श्रमणधर्म की दीक्षा दी और उसका नाम जिनचन्द्र रखा। वि० सं० १२०५ की वैशाख शुक्ला ६ के दिन विक्रमपुर में जिनदत्तसूरि ने ६ वर्ष की वय में ही होनहार जानकर अपने शिष्य जिनचन्द्र को
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