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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] जिनदत्तसूरि
[ २६७ ज्योंही उस स्थान पर पहुंचे त्योंही जिनशेखर उनके चरणों पर गिर पड़ा और निवेदन करने लगा- "सूरिवर ! मेरे इस अपराध को क्षमा कर दें, भविष्य में मैं इस प्रकार के अपराध की पुनरावृत्ति कभी न होने दूंगा।"
क्षमा सागर जिनदत्तसूरि ने जिनशेखर को क्षमा प्रदान कर संघ में सम्मिलित कर लिया। जब देवभद्राचार्य को सम्भवतः जिनदत्तसूरि के मुख से ही यह विदित हुआ तो उन्होंने जिनदत्तसूरि से कहा- "यह जिनशेखर आपके लिये सुखप्रद सिद्ध नहीं होगा।"
जिनदत्तसूरि ने कहा-"सूरिवर! मैं यह जानता हूं। किन्तु यह जिनशेखर आचार्य श्री जिनवल्लभसूरि का छाया की भांति अनुसरण करता हुअा चैत्यवास का परित्याग कर आया था। अत: जितने दिन अपने साथ चलता है, उतने दिनों तक साथ निभायें।"
तदनन्तर देव भद्राचार्य श्री जिनदत्तसूरि को यह परामर्श देकर अपने उपाश्रय की ओर प्रस्थित हुए कि कुछ समय तक वे अनहिल्लपुर पट्टण के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर यथेच्छ विचरण करें।
विहार किस ओर किया जाय ?-अपने अन्तर्मन में उठे इस प्रश्न के समाधान के लिये श्री जिनदत्तसूरि ने तीन उपवास की तपस्या के साथ अपने शिक्षा गुरु श्री हरिसिंहसूरि का स्मरण किया। स्वर्गस्थ आचार्य ने तेले की तपस्या की अन्तिम रात्रि में प्रकट होकर पूछा-"कैसे स्मरण किया है मुझे ?" जिनदत्तसूरि ने कहा- 'मैं कहां विचरण करू?"
उत्तर मिला-"मरुस्थली प्रभृतिषु देशेषु विहर" अर्थात् मरुस्थल आदि प्रदेशों में विचरण करो।"
तदनन्तर जिनदत्तसूरि ने चित्तौड़ से मरुधरा की ओर विहार किया। विहारक्रम में जहां-जहां जिनदत्तसूरि ने पदार्पण किया वहाँ-वहाँ उनके दर्शन और प्रवचन श्रवण से श्रावक-श्राविका वर्ग को परमाह्लाद की अनुभूति हुई। उन लोगों ने अपने-अपने परिवार के सभी सदस्यों के साथ जिनदत्तसूरि को विधिवत् अपना गुरु बना यथाशक्ति व्रत प्रत्याख्यानादि ग्रहण कर श्रावक-श्राविका के रूप में उनका शिष्यत्व अंगीकार किया।
इस प्रकार स्थान-स्थान पर जिनशासन का प्रचार करते हुए जिनदत्तसूरि नागौर पहुंचे। यहां एक ऐसी घटना हुई जिससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि वस्तुतः जिनदत्तसूरि अपरिमित आत्मबल के धनी, साहस एवं शौर्य के पुज और परमुखानपेक्षी-स्पष्टवादी थे। नागौर में प्रभावशाली समाजाग्रणी धनदेव नामक एक श्रावक ने जिनदत्तसूरि के सम्मुख उपस्थित हो कहा- “महाराज,
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