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________________ प्राचार्य श्री जिनदत्तसूरि (दादा साहब) । प्राचार्य जिनदत्तसूरि विक्रम की बारहवीं शताब्दी के ऐसे महान् प्रभावक आचार्य हुए हैं, जिनकी कीर्ति आज भी भारत के अनेक प्रान्तों में सुदूर तक व्याप्त है। वे बड़े ही निर्भीक, प्रत्युत्पन्नमति और स्पष्टवादी थे। उनके उपदेश बड़े ही मार्मिक, अन्तस्तलस्पर्शी होते थे। आपने भारत के कोने-कोने में अप्रतिहत विहार कर न केवल जैन धर्मावलम्बियों के मनोबल के साथ-साथ नैतिक एवं सामाजिक धरातल को ही समुन्नत बनाया अपितु सहस्रों सहस्र अजैनों को श्रमण भगवान् महावीर के विश्वकल्याणकारी उपदेश सुना कर उन्हें जैन धर्मावलम्बी भी बनाया । आपश्री के अन्तःकरण में जैन धर्म के अभ्युदय और उत्थान की बलवती उत्कट भावनाएँ अहर्निश उत्ताल तरंगों की भांति आन्दोलित होती रहती थीं। इस प्रकार की विश्वकल्याणकारिणी उत्कट भावनाओं के परिणामस्वरूप आपकी प्रत्येक इच्छा विराट प्रकृति के लिये आदेश तुल्य बन गई थी, आपके मुखारविन्द से प्रकट हुआ प्रत्येक शब्द सुरतरु के समान तत्काल फलप्रदायी सिद्ध होने लगा। इन सबके परिणामस्वरूप आपके प्रत्येक कार्य-कलाप को, आपकी वाणी को जन-जन में अद्भुत चमत्कार की संज्ञा दी जाने लगी। माता, पिता, जाति और जन्म : जिनदत्तसूरि के पिता का नाम वाच्छिग था। वाच्छिग गुजरात के प्रतिष्ठित एवं राजमान्य हुम्मड़ कुलोत्पन्न श्रेष्ठिवर थे। आपका मूल निवास स्थान. गुजरात का ऐतिहासिक नगर धवलकपुर (धोलका) था। वाच्छिग तत्कालीन गुजरात राज्य के अमात्य (मंत्री) थे। वाच्छिग की धर्म पत्नी का नाम था बाहड़देवी । बाहड़देवी बडी धर्मनिष्ठा एवं पतिपरायणा सन्नारीरत्न थी। वि० सं० ११३२ में मंत्री वाच्छिग की पत्नी बाहड़देवी ने धवलकपुर में एक पुत्र-रत्न को जन्म दिया। यही हुम्मड़ कुल प्रदीप शिशु कालान्तर में जिनशासन प्रभावक जिनदत्तसूरि (दादा साहब) के नाम से विख्यात हुआ। शिक्षा योग्य वय में बालक का सुयोग्य शिक्षक के पास अध्ययन प्रारम्भ करवाया गया। हुम्मड़ कुल प्रदीप कुशाग्रबुद्धि बालक निष्ठापूर्वक अध्ययन करने लगा। जिनेश्वरसूरि के शिष्य धर्मदेव उपाध्याय की आज्ञानुवर्तिनी कतिपय विदुषी साध्वियों ने वि० सं० ११४१ का वर्षावास धवलकपुर में किया। अपने पुत्र के साथ धर्मनिष्ठा बाहड़देवी उन साध्वियों के दर्शन, उपदेश श्रवण, सत्संग व धर्म चर्चा के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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