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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
जनवल्लभ
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अस्तु, जो बीत गया उसके लिये तो — “ अवश्यं भाविनो भावा भवन्ति महतामपि " अथवा "सुनो भरत ! भावी प्रबल, विलखि कहे रघुनाथ । हानि-लाभ जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ" इन सूक्तियों को सम्बल बना सन्तोष करने के अतिरिक्त और कोई उपाय ही नहीं है ।
इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर निष्कर्ष यही निकलता है कि जिनवल्लभ सूरि अपने समय के एक महान् साहसी, उद्भट विद्वान् और क्रान्तिकारी विचारधारा के धनी थे । उन्होंने संधरथ को गहन पंकिल शिथिलाचार के दलदल से बाहर निकालने का अद्भुत् साहसपूर्ण प्रयास किया । घर और बाहर के दोनों ओर के विरोध के उपरान्त भी वे चैत्यवासी परम्परा के बाह्य वर्चस्व को सदा-सदा के लिए समाप्त करने में सफलकाम हुए ।
साहसी धर्मप्रचारक होने के साथ-साथ जिनवल्लभसूरि एक सफल एवं श्रेष्ठ साहित्यसर्जक भी थे । उनकी निम्नलिखित १७ कृतियां आज भी जैन साहित्य की श्रीवृद्धि कर रही हैं :―
१. प्रागमिक वस्तु विचार सार
३. प्रश्न षष्ठि शतक ५. गणधर सार्द्ध शतक
७. संघ पट्ट
६. धर्मोपदेश मय द्वादशमूलक रूप प्रकरण
११. स्वप्नाष्टक विचार
१३. अजित शान्ति स्तवन
१५. जिन कल्याणक स्तोत्र १७. महावीर चरित्र मय वीरस्तव
२. शृंगार शतक ४. पिंड विशुद्धि प्रकरण ६. पौषध विविध प्रकरण
धर्म शिक्षा
८.
१०. प्रश्नोत्तर शतक
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१२. चित्र काव्य
१४. भवारि-वारण स्तोत्र
१६. जिनचरित्र मय जिन स्तोत्र
अन्त में जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है विक्रम सम्वत् १९६७ तदनुसार शेर निर्धारण सम्वत् १६३७ की कार्तिक कृष्णा द्वादशी के दिन तीन दिन के अनशन से इन महापुरुष ने समाधिपूर्वक स्वर्गलोक की ओर प्रयाण किया ।
जिनवल्लभसूरि के क्रान्तिकारी विचारों की उनके पट्टधर जिनदत्तसूरि पर ऐसी अमिट छाप अंकित हुई कि वे जीवन भर अपने पूर्वाचार्य के पदचिन्हों पर चलते हुए जिनशासन की प्रभावना के कार्य में निरत रहे । जैसा कि जिनदत्तसूरि के जीवन वृत्त से स्पष्टतः प्रकट हो जायेगा कि जिनवल्लभ सूरि से भी अति कठोर संघर्ष का उन्हें सामना करना पड़ा, किन्तु वे तिल मात्र भी अपने निर्धारित लक्ष्य से विचलित नहीं हुए ।
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