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________________ २४२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ चैत्यवासी प्राचार्य ने कहा- "मेरे अन्तर्मन में अभी तक इस प्रकार की निस्पृहता उत्पन्न नहीं हुई है कि मैं किसी समर्थ एवं सुयोग्य व्यक्ति को अपने गच्छ और देवमन्दिर का भार सौंपे बिना ही वसतिवास को स्वीकार कर लूं । हां, अब तुम वसतिवास सहर्ष स्वीकार कर सकते हो।" अपने दीक्षा गुरु चैत्यवासी आचार्य जिनेश्वरसूरि की इस प्रकार सम्मति प्राप्त हो जाने पर जिनवल्लभ ने उन्हें वन्दन कर पत्तन की ओर प्रस्थान किया। विहार क्रम से वे अनहिल्लपुर पट्टण में अभयदेवसूरि की सेवा में उपस्थित हुए और उन्हें बड़ी भक्तिपूर्वक वन्दन किया । अभयदेवसूरि को अतीव सन्तोष हुया । मन ही मन उन्होंने सोचा-"जैसा भव्य समझा था उसी प्रकार का यह सिद्ध हुआ है। वस्तुतः मेरे पद के योग्य है यह, किन्तु यह चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्य का शिष्य है इस कारण इस समय इसे आचार्य पद पर आसीन करना मेरे गच्छ के साधुसाध्वी श्रावक श्राविकावर्ग को रुचिकर प्रतीत नहीं होगा। इस प्रकार विचार कर अभयदेवसूरि ने अपने वर्द्धमान नामक शिष्य को अपने गच्छ के धुरीण आचार्यपद पर अधिष्ठित कर दिया और जिनवल्लभ गणि को उन्होंने अपनी उपसम्पदा प्रदान करते हुए कहा-"वत्स ! हमारी प्राज्ञा से तुम जहां चाहो वहीं विचरण कर सकते हो।" तदनन्तर एकान्त देखकर अभयदेवसूरि ने अपने विश्वासपात्र प्रसन्नचन्द्राचार्य को कहा-'मेरे पट्ट पर कोई शुभ मुहूर्त देखकर तुम जिनवल्लभ गणि को आचार्यपद प्रदान कर देना।" इस प्रकार निर्देश देने के कुछ ही समय पश्चात् अभयदेवसूरि ने विक्रम सम्वत् ११३५ तथा दूसरी मान्यता के अनुसार विक्रम सम्वत् ११३६ के आसपास कपड़गंज नामक स्थान में स्वर्गारोहण किया। प्रसन्नचन्द्राचार्य भी अभयदेवसूरि के निर्देशानुसार जिनवल्लभ को उनके पट्टधर पद पर आसीन करने हेतु समुचित अवसर की प्रतीक्षा में ही रह गये, और करपटक वाणिज्य नामक स्थान में अपना अवसान काल अति सन्निकट देख उन्होंने देवभद्राचार्य को अभयदेवसूरि की अन्तिम इच्छा सुनाते हुए कहा- "मैं तो गुरुवर्य की आज्ञा का पालन नहीं कर सका और अब परलोक की ओर प्रयाण करने ही वाला हूं। आप जिनवल्लभ को अभयदेवसूरि के पट्ट पर आसीन कर उनकी अन्तिम इच्छा की पूर्ति करना।" अभयदेवसूरि के स्वर्गस्थ होने के अनन्तर जिनवल्लभ गरिण कुछ समय तक अनहिल्लपुर पट्टण और उसके आस-पास के क्षेत्रों में विचरण करते रहे । पर उन्होंने अनुभव किया कि वहां रहते हुए उनके द्वारा कोई ऐसा कार्य सम्पन्न नहीं किया जा रहा है जिससे कि उनके अन्तर्मन में आह्लाद हो तथा जिन शासन की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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