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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] जिनवल्लभसूरि [ २४१ अपने गुरु के पास न जाकर उन्होंने एक पत्रवाहक को अपने गुरु के पास यह लिखकर भेजा कि आपके कृपा प्रसाद से सुगुरु श्री अभयदेवसूरि के पास सम्पूर्ण आगमों की वाचनाएं ग्रहण कर मैं यहां माईयड़ ग्राम में आ गया हूं। कृपा कर पूज्य गुरुदेव यहीं पधार कर मिलें। पत्र पढ़कर चैत्यवासी आचार्य जिनेश्वरसूरि को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे मन ही मन सोचने लगे-"अरे ! जिनवल्लभ स्वयं यहां क्यों नहीं आया, उसने इस प्रकार का निर्देशात्मक पत्र क्यों लिखा है ?" इतना सब कुछ होते हुए भी उनका शिष्य आगमों की वाचना लेकर आया है, इस समाचार से उनके हर्ष का पारावार नहीं रहा। दूसरे दिन जिनेश्वरसूरि अनेक विद्वानों, प्रतिष्ठित नागरिकों एवं अपने अनुयायियों के विशाल समूह के साथ माईयड ग्राम में जिनवल्लभ के पास आये। जिनवल्लभ भी गुरु के सम्मुख गया और उन्हें वन्दन किया। पारस्परिक कुशलक्षेम के वार्तालाप के अनन्तर ब्राह्मण विद्वानों की जिज्ञासा को शान्त करने के लिये जिनवल्लभ ने अपने ज्योतिष ज्ञान के अनेक चमत्कार बताये । अपने ज्योतिष बल से कुछ ही क्षरणों पश्चात् होने वाली घटनाओं की जिनवल्लभ ने भविष्यवाणी भी की। उनकी भविष्यवाणी को तत्काल सफल सत्य हुई देख चैत्यवासी आचार्य जिनेश्वरसूरि भी आश्चर्यविभोर हो उठे। अन्ततोगत्वा जिनेश्वरसूरि ने अपने शिष्य जिनवल्लभ को एकान्त में पूछा"वत्स ! क्या कारण है कि तुम आशीदुर्ग न आकर बीच के इस ग्राम में ही रुक गये ?" जिनवल्लभसूरि ने अपने गुरु के प्रश्न के उत्तर में कहा-"भगवन् ! सच्चे गुरु के मुख से जिनेश्वर प्रभु के वचनामृत का पान करने के अनन्तर अब मैं विष तुल्य चैत्यवास को कैसे अंगीकार कर सकता हूं।" जिनेश्वरसूरि ने समझाने का प्रयास करते हए उसके समक्ष प्रलोभन भरे स्वर में कहा-"वत्स ! मैंने यह सोच रक्खा था कि तुम्हें आचार्य पद पर आसीन कर अपने गच्छ और देवगृह तथा श्रावक श्राविकावर्ग की व्यवस्था तुम्हें सम्भलाकर मैं अभयदेवसूरि के पास वसति निवास को ग्रहण कर लूंगा।" जिनवल्लभ ने उत्तर दिया-"भगवन् ! यदि आपने इस प्रकार का निश्चय कर रखा है तो वसति वास को अंगीकार करने में अब विलम्ब क्यों कर रहे हैं ? विवेकशील व्यक्ति को तो तत्काल ही अनुचित मार्ग का त्याग और उचित मार्ग का अनुसरण (अंगीकरण) कर लेना चाहिये ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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