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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] दक्षिण में जैन संघ पर..... [ २३५ "जैनधर्म संघ पर दक्षिणापथ में पुनः आपत्ति के घातक घने काले बादल"शीर्षक अध्याय में विशद् रूप से प्रस्तुत किये गये प्रमाण पुरस्सर ऐतिहासिक विवरणों से निष्कर्ष के रूप में निम्नलिखित तीन तथ्य प्रकाश में आते हैं (१) जैन धर्मावलम्बियों के विरुद्ध प्रारम्भ किये गये संहारपरक शैव अभियानों से पूर्व दक्षिणापथ में जैनों की संख्या एक तिहाई अथवा इससे भी पर्याप्त रूप से अधिक थी। जैनधर्म उस समय राजवंशों का परम प्रिय राजधर्म होने के साथ-साथ प्रजा के प्रायः सभी वर्गों का भी लोकप्रिय धर्म था। जब तक जैनधर्म का वर्चस्व रहा राजन्य वर्ग एवं प्रजा के सभी वर्गों द्वारा जन कल्याण के अगणित कार्य किये जाते रहे, देश सभी भांति सुखी एवं समृद्धिशाली रहा। (२) संहारात्मक शैव अभियानों के परिणामस्वरूपईसा की सातवीं शताब्दी से लेकर पन्द्रहवीं सोलहवीं शताब्दी तक की लगभग ६०० वर्षों की अवधि में जैनों का जिस भांति सामूहिक रूप से संहार एवं धर्म परिवर्तन किया गया इसका अनुमान लगाने में कल्पना की उड़ानें भी थक जाती हैं। (३) यदि विजयनगर के महाराजा बुक्कराय ने ईस्वी सन् १३६८ में जैनधर्मावलम्बियों को न्यायपूर्ण संरक्षण प्रदान नहीं किया होता तो सम्भवतः कर्णाटक में साम्प्रतकाल में जो जैनों की थोड़ी बहुत संख्या दृष्टिगोचर होती है, वह भी उपलब्ध नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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