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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] दक्षिण में जैन संघ पर......" [ २३३ निरन्तर नौ सौ वर्षों के जैन विरोधी हिंसात्मक अथवा घृणात्मक अभियान के उपरान्त भी जैनधर्म का अस्तित्व तमिलनाडु प्रदेश के एक संविभाग अर्थात् उत्तरी प्रारकाट में अवशिष्ट रह ही गया तथा कर्नाटक में इतने भीषण हिंसात्मक अभियान के उपरान्त भी जैनधर्म कर्नाटक के प्रायः सभी संविभागों में स्वल्प संख्या में अद्यावधि अवशिष्ट है। इससे यही अनुमान किया जाता है कि दक्षिण में जैनधर्मावलम्बी पूर्वकाल में अत्यधिक प्रचुर संख्या में तथा दक्षिण के कतिपय प्रदेशों में बहुसंख्यक के रूप में विद्यमान थे। पेरीय पुराण के--"उन कलभ्रों ने तमिल प्रदेश की धरती में आते ही जैन धर्म अंगीकार कर लिया। उस समय तमिल देश में जैनों की संख्या अगणित (अपरिगणनीय) थी। जैनों के प्रभाव में आकर उन कलभ्रों ने शैव सम्तों का संहार करना प्रारम्भ कर दिया।" इस उल्लेख से एवं जैन संहार चरितम् के-"पूर्वकाल में पृथ्वी भर में श्रमण लोगों की संख्या अधिक मात्रा में थी। राजा और प्रजा सभी इस धर्म-जैनधर्म में ऐक्यत्व को प्राप्त हो गये थे। जैनधर्म में लोगों की आस्था अधिक होने के कारण अन्य धर्म की बातें उन्हें रुचिकर नहीं लगती थी। सब जगह अरिहन्त भगवान् की उपासना की जाती थी........... सम्पूर्ण जन मानस में यही एकमात्र अटल 'प्रास्था थी कि पहले लौकिक सुख देकर अन्त में मुक्ति प्रदान करने वाले अरिहन्त भगवान् ही सर्वोपरि सर्वस्व अर्थात् सब कुछ हैं। ......"इस प्रकार जब श्रमण धर्म अति उन्नत अवस्था में था तब चोल मण्डल नामक प्रदेश के......"गांव में ब्राह्मण कुल में सुन्दर मूर्ति का जन्म हुआ।" इस विस्तृत विवरण से तथा लिंगायतों के–“महामण्डलेश्वर कामदेव नामक प्राचीन कथानक के-"भगवान् शंकर और माता पार्वती एक समय कैलाश पर्वत पर एक शिवभक्त महात्मा की कुटिया में अतिथि के रूप में विराजमान थे। उस समय नारद शंकर के समक्ष उपस्थित हए और उन्होंने शंकर से निवेदन किया"भगवन् ! आर्यधरा पर जैनों और बौद्धों की शक्ति प्रबल रूप से बढ़ गई है।" भगवान शंकर ने अपने गरण वीरभद्र को प्राज्ञा दी-"वीरभद्र ! तुम धरती पर मानव के रूप में जन्म ग्रहण करो और जैनों तथा बौद्धों की शक्ति को अवरुद्ध कर उन पर अपना अधिकार स्थापित करो।" इस उल्लेख से यही सिद्ध होता है कि दक्षिण में शैवों द्वारा अथवा लिंगायतों द्वारा जैनों के संहार से पूर्व जैन धर्मावलम्बियों की संख्या सम्पूर्ण दक्षिणापथ में पेरीय पुराण आदि शैव ग्रन्थों के शब्दों से ही अगरिगत थी। उत्तरकालीन इतिहासविदों का भी अभिमत है कि शैव अभियानों के प्रारम्भ होने से पूर्व दक्षिण में जैन धर्मावलम्बियों की संख्या बड़ी प्रचुर मात्रा में थी। पटना विश्वविद्यालय के प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के विभागाध्यक्ष साम्प्रतयुगीन लब्ध प्रतिष्ठ इतिहासज्ञ श्री ए.एस. अल्तेकर, एम.ए. एल.एल.बी., डी लिट् ने भी कतिपय अंशों में शैव पुराणों में उल्लिखित एतद्विषयक तथ्य की पुष्टि करते हुए लिखा है : "As in the preceding period, Jainism lacked royal support in northern India, but this was compensated by the Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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