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________________ २२२ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ पुजारी हो अथवा ग्राम प्रमुख, जो भी इस श्रेष्ठ कार्य को किंचिन्मात्र भी ठेस पहुंचायेगा वह गौघातक अथवा गंगातट पर ब्राह्मण की हत्या करने वाला पापी समझा जावेगा । जो अपने दिये हुए वचन का उल्लंघन करेगा, वह साठ हजार वर्ष तक कीड़े की योनि में जन्म लेता रहेगा। इसके उपरि भाग में बाद में जोड़ा गया-कलश के द्वि शेट्टी और हुजूरी शेट्टी ने बुक्कराय के समक्ष आवेदन प्रस्तुत किया, तेरुमल के ताता आये और जीर्णोद्धार किया और दोनों पक्षों ने मिल कर हुजूरी शेट्टी को संघनायक की उपाधि से सम्मानित किया।' __ महाराजा बुक्कराय के इस न्यायपूर्ण शिलानुशासन का कैसा प्रभाव पड़ा इसके कतिपय उदाहरण इतिहास में उपलब्ध होते हैं। बुक्कराय के इस सर्वधर्म समन्वयात्मक उदार दृष्टिकोण से एक ओर जैनों को संरक्षण मिला, वे अपने धार्मिक अनुष्ठानों को, धर्म के प्रचार-प्रसार को पुनः पूर्ण स्वतन्त्रता के साथ प्रारम्भ करने के लिए प्रोत्साहित हुए; तो दूसरी ओर अनेक अजैनों ने भी जैनधर्म स्वीकार किया । ईस्वी सन् १३०७ से ईस्वी सन् १४०४ तक के महाराज हरिहर द्वितीय के शासनकाल में उनके एक सेनापति के पुत्र ने और महाराजकुमार उग्गा ने शैवधर्म का परित्याग कर जैनधर्म स्वीकार किया। इसी प्रकार ईस्वी सन् १४१६ से ईसवी सन् १४४६ तक के महाराज देवराय द्वितीय के शासनकाल में स्वयं महाराज देवराय ने अर्हद् भगवान् पार्श्वनाथ के एक विशाल मन्दिर का शिलाखण्डों से अपने निवास विजयनगर के पान-सुपारी बाजार में निर्माण करवाया। इन उदाहरणों से यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि महाराज बुक्कराय के उत्तराधिकारियों ने उनकी सर्वधर्म समभाव परक उदारवृत्ति से न केवल जैनों को संरक्षण ही दिया, अपितु उन्होंने सक्रिय रूप से जैनधर्म के उत्कर्ष के लिए उल्लेखनीय सहयोग भी प्रदान किया। जैन धर्मावलम्बियों पर आये भीषण संकटकाल में महाराज बुक्कराय ने उनको संरक्षण प्रदान कर क्षतात् किल त्रायत इत्युदन:, क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः । यह शिलालेख सामान्यतया रामानुजाचारी शासन के रूप में जाना जाता है । इसका भाषान्तर कर्नल मैकेन्जी के लिये किया गया और एशियाटिक रिसर्चेज जिल्द ६ पृष्ठ २७० पर ईस्वी सन् १८०६ में प्रकाशित हुआ । इस शिलालेख का स्थान मूर्ति के समक्ष बेलगोल पर्वत के ऊपर एक पत्थर पर उटैंकित किया, ऐसा बताया गया है। यदि यह सही है तो उस पत्थर को वहां से हटाकर वर्तमान स्थान पर लाकर रखा गया है जो कि अब पर्वत पर न होकर नगर में विद्यमान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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