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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ . दक्षिण में जैन संघ पर" [ २२१ शक सम्वत् १२९० किलक वर्ष के भाद्रपद शुक्ला की एकम गुरुवार का यह समय शुभ हो। परम श्रद्धेय महामण्डलेश्वर, देशी राजाओं के विजेता अपने वचन (प्रतिज्ञा) तोड़ने वाले राजाओं को दण्ड देने वाले श्रद्धेय वीर बुक्कराय विश्व की सरकार का संचालन कर रहे थे। जैनों और भक्तों-(रामानुज के भक्तों) के मध्य आपसी संघर्ष पैदा हुआ। समस्त जिले मय अनेगोण्डी, हिसापट्टन, पेनागोण्डे और कल्लेहदपट्टन के सम्माननीय व्यक्तियों (जैनों) ने राजा बुक्कराय के पास भक्तों द्वारा किये गये अन्याय के विरोध में आवेदन प्रस्तुत किया। महाराजा ने अपनी सभा में इन सभी (अठारह प्रान्त-विशेषकर कोविल, तेरुमल, पेरुमल-कोविल और तेरुनारायणपुरम् के वैष्णव, जिनमें सभी प्राचार्य व समया, प्रतिष्ठित पुरुष, भिक्षाजीवी, मन्दिर के सेवक, श्रीचरणों के पवित्र चिह्न से अंकित, पानी लाने वाले, चार सिंहासन के और आठ त्राता, सच्चे धर्म के शिक्षक अर्थात् धर्मोपदेशक, तिरुकुल और जम्बवकुल आदि भी सम्मिलित थे) की उपस्थिति में घोषणा की कि वैष्णव दर्शन और जैन दर्शन में कोई मतभेद नहीं है । तदनन्तर महाराजा बुक्कराय ने जैनों के हाथ वैष्णवों के हाथों में थमाते हुए इस प्रकार का निर्णय दिया-“इस जैन दर्शन में परम्परागत रिवाज के अनुसार पांच बड़े ढोल और कलशों का प्रयोग यथावत् जारी रहेगा। यदि जैन दर्शन पर भक्तों की ओर से कोई किसी प्रकार की पांचआपत्ति आवेगी तो उसे वैष्णवों पर आई हुई आपत्ति समझ कर ही सुलझाया जायगा और जैनों की पूरी तरह से रक्षा की जायगी।" । - इस सम्बन्ध में जो यह निर्णय दिया गया है उसका सम्पूर्ण राज्य के सभी वसतियों, ग्रामों एवं नगरों में वैष्णवों द्वारा पूर्ण रूप से पालन किया जाय, इस प्रकार की समुचित व्यवस्था वैष्णवों को करनी होगी। जब तक पृथ्वी पर सूर्य चन्द्र विद्यमान हैं तब तक वैष्णव समाज जैन दर्शन का रक्षण करता रहेगा। वैष्णव जैनियों को किसी भी अवस्था में अपने से पृथक् नहीं देखेंगे। पवित्र तिरुमलै के ताता, सम्पूर्ण राज्य के प्रतिष्ठित व्यक्तियों की स्वीकृति से सम्पूर्ण राज्य के जैनों को अधिकार दिया गया कि प्रत्येक घर से एक फैनम् वार्षिक बेलगोल तीर्थ के भगवान् के रख-रखाव रक्षण आदि के लिये लेंगे । इस प्रकार एकत्रित किये गये स्वर्ण से प्रति मास बीस सेवक भगवान् के व्यक्तिगत रक्षण (अंगरक्षक) के लिये रहेंगे और शेष बचा सोना जिनालयों की सफाई, शुद्धि एवं जीर्णोद्धार के कार्यों में व्यय किया जायगा। जब तक सूर्य और चन्द्रमा विद्यमान हैं इस नियम में किसी भी प्रकार की स्खलना (त्रुटि) नहीं आने देंगे। इस प्रकार प्रतिवर्ष अर्थदान से यश और पुण्य का अर्जन करते रहेंगे। यह जो नियम अभी बनाया गया है, इस नियम का जो कोई भी व्यक्ति उल्लंघन करेगा, वह राजा का, संघ का और समुदाय का द्रोही होगा। चाहे वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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