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________________ २१८ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ बुक्कराय के इस प्रादर्श मानवीय दृष्टिकोण का उनका भावी पीढ़ियों के उत्तराधिकारियों पर भी बड़ा चमत्कारिक एवं दूरगामी प्रभाव पड़ा और महाराजा बुक्कराय के इस पवित्र मानवीय दृष्टिकोण को सदा अपने ध्यान में रखते हुए उनके उत्तराधिकारियों ने संकुचित मनोवृत्ति का परित्याग कर विशाल हृदयता एवं उदारता प्रकट करते हुए अपनी प्रजा के सभी वर्गों को चाहे वे हिन्दू हों अथवा अन्य किसी वर्ग के, सबको समान न्याय प्रदान किया। ___महाराजा बुक्कराय का शासन ईस्वी सन् १३५३ से १३७७ तक का ऐतिहासिक प्रमाणों से इतिहासविदों द्वारा मान्य किया गया है। जैन वैष्णव संघर्ष की यह घटना शक सम्वत् १२६० तदनुसार ईस्वी सन् १३६८ में बुक्कराय के शासन के पन्द्रहवें वर्ष की घटना है । जैनों और वैष्णवों के प्रतिनिधियों को अपना निर्णय सुनाते हुए बुक्कराय ने जैन प्रतिनिधियों के हाथ वैष्णव प्रतिनिधियों के हाथों में थमा कर कहा- "अाज से आप लोग एक दूसरे के मित्र हुए। आप दोनों का परम कर्तव्य होगा कि एक दूसरे को अपने धार्मिक कृत्य करने में किसी की ओर से किसी भी प्रकार की कोई बाधा नहीं पहुंचाई जाय । सब अपने-अपने धार्मिक अनुष्ठान, धार्मिक क्रिया-कलाप पूर्ण स्वतन्त्रता के साथ करते रहें।" तदनन्तर महाराजा बुक्कराय ने वैष्णवों को आज्ञा दी कि वे सम्पूर्ण विजयनगर राज्य की सीमाओं में वर्तमान अपने-अपने मन्दिरों में इस अनुशासन को अक्षरशः उकित करवा कर सच्चे मन से इस अनुशासन का पूर्ण रूपेण परिपालन करते रहें। जैनों और वैष्णवों में सौहाद्रपूर्ण सन्धि करवाने वाला महाराज बुक्कराय का वह अनुशासन स्थान-स्थान पर मन्दिरों में प्रस्तरशिलाओं एवं प्रस्तर स्तम्भों पर उटैंकित करवाया गया। जैनों के धर्मस्थान श्रमण वेलगोल की पहाड़ी पर मन्दिर के समक्ष एक प्रस्तर खण्ड पर भी इस अनुशासन को उटैंकित करवाया गया, जो श्रवण वेलगोल नगर में अद्यावधि विद्यमान है। महाराज बुक्कराय के उस अनुशासन का आंग्लभाषा में रूपान्तर ईस्वी सन् १८०६ में एशियाटिक रिसर्चेज वाल्यूम ६ में पृष्ठ २७० पर छप चुका है। उसकी प्रतिलिपि यथावत् यहां प्रस्तुत की जा रही है। जो इस प्रकार है : (Shilanushashan of Maharaja Bukka Rai of Vijayanagar No. 136 Date A. D. 1368 size 3 ft. 4 inch x 2 ft. 2 inch mentioned in the Book “Shrawan Belgol Inscriptions" written by Shri Lewis Rice MRAS, at page 179). Be it well. Possessed of every honour, the great fire of the mare-faced to the ocean of herities, the original slave at the lotus feet of Shri Ranga Raja (or the King of Shri Ranga ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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