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________________ २०६ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ के रूप में जो लिखा है उसका प्रांग्ल भाषा में रूपान्तर पाठकों की जानकारी के लिए यहां प्रस्तुत किया जा रहा है : "The Hindus", Says he, “believe that there is no country but their's, no. king like their's, no science like theirs............ If they travelled and mixed with other nations they would have soon changed their mind." Al-Beruni also remarks that "their ancestors were not so narrow-minded as the present generation.”! इस प्रकार अपने पूर्वजों से विरासत के रूप में प्राप्त "तेजस्वी नावधीतमस्तु" इस दृढ़ संकल्प स्वरूप हितप्रद मन्त्र के विस्मरण का कटुतम फल भारतीयों को भोगना पड़ा। “मा विद्विषावहै" हम एक दूसरे को अपना सहोदर समझ कर परस्पर कभी द्वेष न करें-इस महामन्त्र के ६ अक्षरों में से प्रथमाक्षर 'मा" को तो भारतीयों ने पूर्ण रूप से ही भुला दिया और अन्तिम पांच अक्षरों “विद्विषावहै" (हम परस्पर एक दूसरे से द्वेष करें) को अपने वैयक्तिक, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में, अपने जीवन के हर क्षण, हर लहमें, हर पल में मन, वचन एवं कर्म से क्रियान्वित करना प्रारम्भ कर दिया। इसका घोर दुर्भाग्यपूर्ण दयनीय दुष्परिणाम यह हुआ कि भारत का राजनैतिक, सामाजिक, शैक्षणिक, धार्मिक एवं वैयक्तिक संतुलन पारस्परिक विद्वेष की प्रचण्ड प्रांधी में अर्क-तुल (आक की रूई) की भांति पूर्णतः छिन्न-भिन्न हो गया। भारत की संघशक्ति इतनी बुरी तरह बिखर गई कि भारत पर विदेशी आततायियों के आक्रमण का तांता सा लग गया । राष्ट्रव्यापी सार्वभौम सत्तासम्पन्न सशक्त शासन अथवा प्रभुसत्ता के अभाव में परस्पर लड़ कर पहले से ही अशक्त बने हुए राज्यों के शासक विदेशी आक्रमणों के समक्ष न टिक पाने के कारण, एक-एक करके सभी राज्य बड़ी तीव्र गति से बालू के महल की भांति ढहते ही चले गये । देशव्यापी जनमानस में व्याप्त वर्ण-विद्वेष, उच्च वर्ण उच्च जाति, उच्च कुल के थोथे दम्भ, धार्मिक असहिष्णुता, झठे मताग्रह और जन-जन के मन में घर किये हुए अपनी-अपनी ही श्रेष्ठता के अहं ने खुलकर ताण्डव नृत्य किया, जिसका सर्वनाशी दुष्परिणाम यह हुआ कि सम्पूर्ण भारत के किसी भी प्रदेश, नगर अथवा 1. The History and Culture of Indian people Vol. V. The struggle for Empire, page 127 ___By R. C. Majumdar Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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