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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
[ २०५ आततायी आक्रान्ताओं के हाथ ही लगती और न इतनी बड़ी संख्या में भारतवासियों का जनसंहार ही होता।
"तेजस्वी नावधीतमस्तु” अर्थात् हमारा सर्वांगीण अध्ययन तेजस्वितापूण हो, जिससे कि हमारी तेजस्विता उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहे-इस महामन्त्र को भुला देना भी भारतवासियों के लिये बड़ा भयंकर अभिशाप सिद्ध हुअा। अभ्युदय, उत्कर्ष, सर्वांगीण विकास और विज्ञान की दौड़ में विश्व के अन्यान्य देश कितने आगे बढ़ गये हैं, संसार के अन्य देशों में कहां-कहां क्या-क्या हो रहा है, इस दिशा में विक्रम की सातवीं-आठवीं शताब्दी के आगमन के साथ ही संभवतः भारतवासियों का अध्ययन वस्तुतः शून्यवत् रहा। दरियापार के देशों की यात्रा न की जाय, भारत के पश्चिमी प्रदेश की अटक आदि महानदियों को भी दरिया की संज्ञा दी जाकर उनको पार करने पर ब्राह्मणों द्वारा सामाजिक प्रतिबन्ध लगा दिया गया । इस प्रतिबन्ध के उपरान्त भी यदि किसी ने दरिया पार के देशों की यात्रा का दुस्साहस किया तो उसे समाज से बहिष्कृत कर उसे म्लेच्छ की संज्ञा से अभिहित किया जाने लगा। इसका दुष्परिणाम यह हा कि भारतीय जनता संसार के अन्यान्य देशों, मुख्यत्तः पड़ोसी देशों की प्रयतिशील मतिविधियों, युद्ध में विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से उन देशों के द्वारा किये गये अभिनव आविष्कारों प्रादि से पूर्णतः अनभिज्ञ बनी रही। विक्रम की पाठवीं शताब्दी (विक्रम सं. ७६८) में सिन्ध प्रदेश पर अरबों द्वारा किये गये आक्रमण के समय सिन्ध के राजा दाहिर और अरब सेनापति कासिम की सेनाओं के युद्ध में अरबों द्वारा प्राविष्कृत अभिनव अस्व अग्निपुञ्ज नफ्थे ने युद्ध की निर्णायक घड़ियों में दाहिर की विजय को घोर पराजय में परिवर्तित कर दिया, यह वस्तुतः भारतीयों के तेजस्वितावर्द्धक अध्ययन के नितान्त प्रभाव का ही कारण था।
विक्रम की आठवीं शताब्दी में अरबों के हाथों हुई उस पराजय के उपरांत भी भारतीयों ने वि. सं. १०६६ तक रणकौशल बिषयक विदेशियों के इस विज्ञान का "तेजस्वी नावधीतमस्तु” इस महामन्त्र से मुख मोड़ कर अध्ययन नहीं किया । उसका दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम यह हुआ कि सुबुक्तगीन (महमूद गजनवी के पिता) के साथ हुए संग्राम में जबकि विजयश्री भारतीय योद्धाओं का वरण करने वाली थी, एक नफ्था लाहोर के राजा आनंदपाल के हाथी के कपोल में लगा और राजा को लिये हुए हाथी के भागते ही भारतीय सेना रणांगण से भाग खड़ी हुई और भारतीयों को भयंकर अपमानजनक पराजय का मुंह देखना पड़ा।
तत्कालीन, भारतीयों की संकीर्णतापूर्ण अनभिज्ञता के सम्बन्ध में महमूद गजनवी के समय में अनेक वर्षों तक भारत में रहे प्रसिद्ध ज्योतिर्विद एवं इतिहासकार अल्बेरूनी ने अपनी ऐतिहासिक कृति "तहकीके हिन्द" में प्रत्यक्षदर्शी
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