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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] द्रोणाचार्य
[ १९७ करने के पश्चात् उन्होंने इसका लाभ इस रूप में उठाया हो तो कोई पाश्चर्य की बात नहीं है । “अकारणमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते"-इस तथ्यपरक सूक्ति को ध्यान में रखते हुए यदि आगम-मर्मज्ञ विद्वान् क्षीर-नीर विवेकपूर्ण सूक्ष्म दृष्टि से शोध करें तो सम्भव है कुछ आश्चर्यकारी तथ्य प्रकाश में पायें। सम्भव है इस स्वरिणम अवसर से लाभ उठा वे अपनी परम्परा की स्वल्पाधिक मान्यतामों को वृत्तियों में समाविष्ट करने के लोभ का संवरण न कर सके हों।
इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर चैत्यवासी परम्परा के . प्रधानाचार्य द्रोणसूरि का जीवनवृत्त जैन इतिहास में बड़ा ही महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा। आशा है आगम मर्मज्ञ प्राचार्य, सत्य के प्रबल पक्षपाती सन्त, प्रबुद्ध पाठक एवं शोधप्रिय विद्वान् इस दिशा में प्रयास कर शोधपूर्ण प्रकाश डालने की कृपा करेंगे।
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