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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
सन्निकटापन्न समय में ही ढह कर धूलिसात् होने वाला है । ऐसे संक्रान्तिकाल में द्रोणाचार्य ने चैत्यवासी परम्परा की बागडोर सम्भाली। उन्होंने अपनी परम्परा के अस्तित्व को बनाये रखने के लिये सर्वप्रथम अपनी परम्परा के अपने अधीनस्थ विविध विद्याओं में निष्णात विद्वान् प्राचार्यों को ग्रागमों का तलस्पर्शी ज्ञान देना प्रारम्भ किया, जिससे कि वे प्रतिपक्षी परम्परा द्वारा आगमिक आधार पर किये जा रहे प्रचार के प्रमुख पहलुओं से भली-भांति अवगत हो अपनी परम्परा में भी अपरिहार्य परिस्थितियों में परमावश्यक सुधार की भूमिका तैयार कर सकें।
इसके साथ ही बदलती हुई परिस्थितियों में किन-किन पहलुओं, रीतिनीतियों और मान्यताओं पर पाटण में लोकप्रिय होती जा रही नवोदिता वसतिवासी अथवा सुविहित परम्परा के साथ उनकी अपनी चैत्यवासी परम्परा का मतैक्य संभव हो सकता है, इस पहलू पर भी द्रोणाचार्य ने गहन चिन्तन-मनन के पश्चात् इस दिशा में बड़ी ही सूझ-बूझ के साथ काम लिया। इसके लिये उन्होंने अभयदेवसूरि के साथ मेलजोल बढ़ा, समन्वयपरक नीति का अवलम्बन लिया । चैत्यवासी परम्परा के चौरासी गच्छों के प्रधानाचार्य और पाटण के महान् संघ के प्रमुख पद के धारक होते हुए भी उन्होंने समन्वयवादी नीति का अवलम्बन लेकर नवोदिता सुविहित परम्परा के प्राचार्य अभयदेवसूरि के प्रति अत्यधिक सम्मान प्रकट करना शुरू किया। प्राचार्य द्रोण वाचना में सम्मिलित होने के लिये आते हुए अभयदेवसूरि को देखकर तत्काल खड़े होते और उनके प्रति इस प्रकार का उत्कृष्ट सम्मान प्रकट करते, जिस प्रकार का कि कोई छोटे पद वाला व्यक्ति अपने से बड़े पद वाले पूज्य के प्रति प्रकट करता है। अपने दो बड़े पदों की गरिमा के विपरीत अपनी सुविशाल एवं सुदृढ़ परम्परा की तुलना में एक छोटी-सी नगण्य परम्परा के प्राचार्य के प्रति इस प्रकार का उत्कृष्ट सम्मान अपने महान् प्रधानाचार्य द्वारा प्रकट किया जाना चैत्यवासी परम्परा के अन्य ८३ प्राचार्यों को पहले पहल बड़ा खटका । वे अपने प्रधानाचार्य से रुष्ट होकर बिना कुछ कहे चुपचाप अपनेअपने मठों की अोर बिना वाचना लिये ही लौट गये। अभयदेवसूरि के साथ उत्तरोत्तर सहयोग बढ़ाकर येनकेन प्रकारेण अपनी मान्यता की गिरती हुई प्रतिष्ठा को बनाये रखना है, इस लक्ष्य से द्रोणाचार्य ने अपने अधीनस्थ आचार्यों को समझाया कि जिन आचार्य के प्रति वे अप्रत्याशित बहुमान प्रकट कर रहे हैं, वे अभयदेवसूरि कोई सामान्य प्राचार्य नहीं हैं। वे आगमों के तलस्पर्शी मर्मज्ञ और प्राचार्य के योग्य सभी गुणों के निधान हैं । उनके प्रति जितना सम्मान प्रकट किया जाय, थोड़ा है।
इस प्रकार अपने अधीनस्थ आचार्यों को अथवा अपने अनुयायियों को भलीभांति समझा बुझाकर द्रोणाचार्य ने अभयदेवसूरि के प्रति पूर्ववत् पूर्ण सम्मान प्रकट करते हुए उनके साथ सम्पर्क को उत्तरोत्तर बढ़ाये रक्खा । द्रोणाचार्य की इस दूरदर्शिता का परिणाम यह निकला कि अभयदेवसूरि ने स्वयं द्वारा रचित
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