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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] द्रोणाचार्य [ १६३ चारों विदुषियां स्तब्ध हो कालिदास की ओर देखती रह गई। उन चारों ने राजा भोज को प्रगति मुद्रा में अभिहित करते हुए निवेदन किया--"राजन् ! आप धन्य हैं, जिन्हें महाकवि कालिदास जैसे सरस्वतीपुत्र सखा के रूप में प्राप्त हुए हैं। हमने कोई ऐसा कार्य नहीं किया, जिससे किसी को हमारी जाति का आभास तक हो सके । हमें आश्चर्य है कि हमारे द्वारा अनभिव्यक्त तथ्य को महाकवि ने पूर्णतः यथा तथ्य रूप में प्रकट कर दिया। यह कैसे हुआ, बस यही जानने की हमारे अन्तर्मन में उत्कण्ठा है।" कालिदास ने उन चारों द्वारा चार पदों में अभिव्यक्त किये गये प्रात:काल के वर्णन के श्लोक को सुनाते हुए कहा-"आपके अन्तर्ह द से उद्गत हुई प्राकृतिक काव्य धारा ने आपके वंश का परिचय दे दिया है।" क्रमशः 'रसपति:,' 'बुधजन,' 'नपतय,' और 'द्रविणरहितानाम्' की ओर महाकवि ने उन चारों महिलाओं का ध्यान दिलाया। सभ्यों सहित वे चारों विदुषियां आश्चर्याभिभूत हो निनिमेष दृष्टि से महाकवि की अोर अपलक देखती ही रह गई। यह कथानक इतिहास की गुत्थियों को सुलझाने वाले श्रम से परिश्रान्तमना पाठकों के केवल मनोरंजनार्थ ही नहीं अपितु --"चैत्यवासी परम्परा के महान् प्राचार्य द्रोणसूरि क्षत्रिय कुल के प्रदीप थे"--इस ऐतिहासिक तथ्य की पुष्टि के लिये भी प्रस्तुत किया गया है । द्रोणाचार्य ने अपनी एकमात्र कृति-"अोधनियुक्तिवृत्ति के आद्य मङ्गलाचरण की प्रथम पंक्ति में संभवतः अपने वंश को ही प्रकट करते हुए लिखा है : “अर्हद्भ्यस्त्रिभुवन राजपूजितेभ्यः” अर्थात्--त्रिलोकी के राजाओं द्वारा पूजित अर्हद् भगवान् को मैं प्रणाम करता हूँ। उपर्युक्त श्लोक की भांति यह पद भी द्रोणसूरि की क्षत्रिय जाति का द्योतक होना चाहिये। ___ इतिहास की एक अनबुझी पहेली को हल करने के श्रम से पाठकों के परिधान्त मन एवं मस्तिष्क को काव्य की रसधारा से गतक्लम करने के अनन्तर अब पुनः विज्ञ विचारकों का ध्यान चैत्यवासी परम्परा के प्रधानाचार्य श्री द्रोणाचार्य के जीवन वृत्त के एक ऐसे पहलू की ओर आकर्षित किया जारहा है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । यह तो इस इतिहास माला के तृतीय भाग में और प्रस्तुत किये जा रहे चतुर्थ भाग में भी बताया जा चुका है कि महान् क्रियोद्धारक आचार्य वर्द्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि द्वारा विक्रम सम्वत् १०८० के आस-पास पत्तनाधीश दुर्लभराज की राज्य सभा में चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्यों को, जिनमें द्रोणाचार्य के पूर्ववर्ती चैत्यवासी प्रधानाचार्य सूराचार्य भी सम्मिलित थे, शास्त्रार्थ में पराजित कर दिये जाने के पश्चात् चैत्यवासी परम्परा की साख जनमानस से उठ चुकी थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि चैत्यवासी परम्परा का अभेद्य कहा जाने वाला गढ़ अति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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