SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ व्यापार चलता था। जिस समय अभयदेवसूरि उस नगर में पधारे उससे पहले ही उन श्रावकों के जहाज व्यापारार्थ समुद्र पार के देशों के लिये भेज दिये गये थे। वे जहाज विदेशों से माल लेकर भारत की ओर लौट रहे थे, उस समय यह बात चारों ओर फैल गई कि वे जहाज समुद्र में डूब गये हैं। इस प्रकार की बात सुनकर उन श्रावकों को बड़ा दुःख हुआ। शोक सागर में निमग्न रहने के कारण वे लोग पर्याप्त विलम्ब के पश्चात् आचार्यश्री की सेवा में वन्दनार्थ उपस्थित हुए। देरी का कारण पूछने पर उन श्रावकों ने जहाज डूबने विषयक अपुष्ट समाचारों की बात प्राचार्यश्री से निवेदित की और कहा कि हम लोग इस चिन्ता के कारण विलम्ब से आ सके हैं। श्रावकों की बात सुनकर कुछ क्षण तक ध्यानस्थ रहने के पश्चात् अभयदेवसूरि ने कहा--"इस विषय में तुम्हें किसी प्रकार की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है । तुम्हारे जहाज सुरक्षित हैं और शीघ्र ही यहां आने वाले हैं।" दूसरे ही दिन उन व्यापारियों के सेवक ने आकर सूचित किया कि जहाज सुरक्षित अवस्था में आ गये हैं और उनसे समस्त क्रयाणक उतार लिया गया है। यह सुनते ही उन श्रावकों के हर्ष का पारावार नहीं रहा। सभी ने परस्पर मन्त्रणा कर समवेत स्वरों में अभयदेवसूरि के समक्ष उपस्थित हो अपना अटल निश्चय सुनाया--"प्राचार्यदेव ! हमारे इन जहाजों द्वारा लाये गये ऋयाणक से हम सबको जितना लाभ होगा, उसका आधा भाग हम आप द्वारा निर्मित सिद्धान्तों, वृत्तियों और साहित्य के लिखवाने में व्यय करेंगे।" अभयदेव सूरि ने कहा-'यह तो तुम्हारे लिये मुक्ति-गमन में सहायक होगा । तुम्हारे परिणाम बड़े सुन्दर हैं। अच्छे कार्य करने में तो सदा तत्पर रहना चाहिये।" कतिपय दिनों तक 'पाल्ह उद्रा' नगर में रहने के अनन्तर प्राचार्य अभयदेव सूरि पुनः अणहिल्लपुर पट्टण लौट आये। खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली के उल्लेखानुसार अभयदेवसूरि द्वारा प्रतिबोधित दो श्रावकों ने श्रावक के १२ व्रतों के पालन और समाधि-पूर्वक मरण के कारण स्वर्गगति प्राप्त की। कहा जाता है कि दोनों देवों ने सीमन्धर और युगमन्धर स्वामी को वन्दन करने के पश्चात् उनसे प्रश्न किया कि उनके गुरु अभयदेवसूरि कौनसे भव में मुक्ति प्राप्त करेंगे । "तीसरे भव में अभयदेवसूरि सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाएंगे।" प्रभु के मुख से यह उत्तर सुनकर देव बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने अभयदेवसूरि के समक्ष उपस्थित हो उन्हें भी यह सुसंवाद सुनाया। पुनः देव-लोक की ओर लौटते हुए उन दोनों ने हर्षातिरेकवशात् एक गाथा का उच्चारण किया जो गुर्वावली में इस प्रकार उद्ध त है :.. भरिणयं तित्थयरेहि, महाविदेहे भवंमि तइयंमि । तुम्हाण चेव गुरवो, मुत्ति सिग्धं गमिस्संति ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy