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________________ सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] अभयदेवसूरि [ १६५ अभयदेवसूरि के समक्ष ठहर सकता हो ? यदि कोई ऐसा हो तो वह हमें बतलावें । इस श्लोक को पढ़ते ही सभी चैत्यवासी प्राचार्य हतप्रभ हो पूर्णतः शान्त हो गये और अभयदेव सूरि द्वारा रचित वृत्तियों के आधार पर चैत्यवासी प्रमुख आचार्य द्रोणाचार्य अंग शास्त्रों की व्याख्या पहले की भांति करने लगे। यह सब प्राचार्य अभयदेवसूरि की उच्चकोटि की विद्वत्ता एवं विनम्रता का ही चमत्कार था कि सुविहित परम्परा की नितान्त विरोधिनी चैत्यवासी परम्परा के प्रमुख प्राचार्य भी अन्तर्मन से उनका आदर करने लगे। अभयदेवसूरि की गुणज्ञता का एक इसी उदाहरण से भलीभांति अनुमान लगाया जा सकता है कि उन्होंने चैत्यवासी परम्परा के विद्वान् प्रमुख प्राचार्य द्रोणाचार्य से अपनी वृत्तियों का संशोधन करवाकर न केवल उनकी विद्वत्ता को सम्मानित ही किया अपितु उससे पूर्णरूपेण लाभ भी उठाया। इन सब गुणों के अतिरिक्त प्रतिभा की परख और सत्पात्र के चयन गुण . में भी वे अप्रतिम थे। इस सम्बन्ध में जिनवल्लभसूरि का उदाहरण उल्लेखनीय है। कूर्चपुरीय चैत्यवासी आचार्य जिनेश्वरसूरि ने अपने जिनवल्लभ नामक एक मेधावी शिष्य को अभयदेवसूरि के पास अंग शास्त्रों के अध्ययन के लिये भेजा। शिक्षार्थी पर प्रथम दृष्टि निक्षेप से ही उन्होंने अनुभव कर लिया कि यह शिक्षार्थी आगे चलकर एक उच्च कोटि का विद्वान् और शासन प्रभावक होगा। उन्होंने बड़े स्नेह से शिक्षार्थी जिनवल्लभ को सिद्धान्तों के शिक्षण के साथ-साथ सभी विद्याओं का तलस्पर्शी अध्ययन करवाया और उसे विद्वानों में अग्रणी बना दिया । अभयदेवसूरि के पास सिद्धान्तों एवं विभिन्न विद्याओं का अध्ययन करने के अनन्तर अपने चैत्यवासी गुरु के पास जा उन्हें स्पष्ट रूप से कह दिया-"मैं स्व-पर-कल्याण की कामना से चैत्यवास का परित्याग कर सुविहित परम्परा के आचार्य अभयदेव का शिष्यत्व स्वीकार करूँगा।" गुरु द्वारा पुनः पुनः अनुरोध किये जाने के उपरान्त भी जिनवल्लभसूरि ने चैत्यवास का परित्याग कर दिया और जीवन भर सुविहित परम्परा के प्रचारप्रसार एवं उत्कर्ष के लिए समर्पित रहे । __ खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली के उल्लेखानुसार प्राचार्य अभयदेवसूरि महान् उच्च कोटि के निमितज्ञ अथवा भविष्य कथन में अद्वितीय थे। इस उल्लेखानुसार आचार्य अभयदेवसूरि विहार क्रम से पाल्हउदा (प्रभावक चरित्र में उल्लिखित पाल्यपद्रपुर) नामक ग्राम में पहुंचे। इस ग्राम के रहने वाले श्रावक अभयदेवसूरि के परम भक्त थे। उन श्रावकों का विदेशों में दूर-दूर समुद्र पार तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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