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सामान्य श्रुतधर काल लण्ड २ ] अभयदेवसूरि
[ १५५ धरणेन्द्र की बात सुनकर अभयदेव सूरि ने कहा:- न तो मुझे मृत्यु से कोई भय है, और न घोरातिघोर रोग से ही। लोगों ने जो यह झूठा अपवाद फैला दिया है कि वृत्तियों की रचना करते समय मैंने सूत्रों की जिनवाणी से विपरीत उत्सूत्र व्याख्या की, इसलिये जिन शासनाधिष्ठायक देवों ने ऋद्ध हो मेरे शरीर में कुष्ठ रोग उत्पन्न कर दिया है, इस प्रकार के झूठे अपवाद के कारण मुझे केवल इसी बात का भय है कि यदि मेरा रोग से प्रपीड़ित अवस्था में देहावसान हो गया तो लोक में जिनशासन की प्रतिष्ठा एवं प्रभावना को धक्का लगेगा।" - इस पर धरणेन्द्र ने कहा-"तुम्हें इस प्रकार अधीर नहीं होना चाहिये। मैं बताता हूं उस भांति जिनबिम्ब का उद्धार कर जिनशासन की महती प्रभावना करो । स्तम्भन ग्राम के पास से टिका नाम की नदी के तट पर जाल वृक्ष के समूह के बीच में पार्श्वनाथ की प्रतिमा रक्खी हुई है। उस प्रतिमा को तुम प्रकट कर दो । वहां एक महान् तीर्थ की स्थापना हो जायगी। उस तीर्थ की स्थापना से धरातल पर तुम्हारी पुण्यशालिनी कीर्ति युग-युगान्तर तक स्थायी हो जायगी ।" उसने फिर कहा- "वृद्धा स्त्री का रूप धारण किये एक देवी तुम्हारा मार्गदर्शन करेगी । उसे तुम्हारे अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति नहीं देख सकेगा। उसके आगे आगे श्वेत स्वरूप में किं वा श्वेत कुत्ते के रूप में क्षेत्रपाल चलता रहेगा ।" यह कह कर धरणेन्द्र तत्काल तिरोहित हो गया।
इस प्रकार प्रभावक चरित्रकार ने पार्श्वनाथ की मूर्ति के सम्बन्ध में अभयदेवसूरि को धरणेन्द्र द्वारा सूचना दिये जाने का उल्लेख किया है । पर खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली में शासनदेवी द्वारा इस विषयक सूचना दिये जाने का उल्लेख है।
अस्तु ! इन दोनों प्रकार के उल्लेखों के तथ्यातथ्य की गहराई में जाना हमें अभीष्ट नहीं है। यहां हमें यही बताना अभीष्ट है कि स्थानांगादि नौ अंग शास्त्रों की वृत्तियों का निर्माण कर अभयदेवसूरि ने चतुर्विध संघ की जो सेवा की है, वह युग युगान्तर तक जैन इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखी जाती रहेगी।
प्राचार्य अभयदेवसूरि ने स्थानांग आदि ६ अंगों पर वृत्तियों की रचनाएं कब कब कीं, इस सम्बन्ध में आगे यथास्थान इसी प्रकरण में प्रकाश डालने का प्रयास किया जायगा। इससे पूर्व यहाँ प्रत्येक विज्ञ के अन्तर्मन में एक जिज्ञासा उत्पन्न हो सकती है, उस पर विचार करना परमावश्यक है। "प्रभावक चरित्र"१ और "खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली"-२ इन दोनों ग्रन्थों में समान रूप से उल्लेख किया
१. यत्र सन्दिह्यते चेतः, प्रष्टव्योऽत्र मया सदा ।
श्रीमान् सीमन्धर स्वामी, तत्र गत्वा धृतिं कुरु ॥११०
-प्रभावक चरित्र, पृष्ठ १६५
२. खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली, पृष्ठ ६ ।
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