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________________ १५४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ नमन, और "जय तिहुयण" नामक नमस्कार द्वात्रिंशिका की रचना करने तथा उससे कुष्ठ रोग से मुक्ति पाने के अनन्तर पाटन स्थित 'कर डिहट्टी' नामक वसति में नौ अंगों पर वृत्तियों की रचना करने का उल्लेख किया गया है । जबकि प्रभावक चरित्रकार ने स्थानांग यादि नौ आगमों पर वृत्तियों की रचना करने की प्रार्थना के साथ-साथ प्राचाम्ल व्रत पूर्वक बड़े लम्बे समय तक अहर्निश वृत्तियों की रचना के गुरुतर कार्य की निष्पत्ति के लिये अथक परिश्रम करते रहने के कारण नौ ही अंगों की वृत्तियों की परिसमाप्ति के पश्चात् कुष्ठ रोग की उत्पत्ति का उल्लेख किया है । इन दोनों ग्रन्थकारों के एतद्विषयक उल्लेख में दूसरा अन्तर यह है कि खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावलीकार 'शम्भारणा' नामक ग्राम में कुष्ठ रोग से प्रभयदेवसूरि के ग्रस्त होने का, और धौलकपुर में पहुंचते ही उनके कुष्ठ रोग से मुक्त हो जाने का उल्लेख किया है; इसके विपरीत प्रभावक चरित्र में उल्लेख है कि नौ अंगों पर वृत्तियों की रचना कर देने के पश्चात् जब अभयदेवसूरि धवलकपुर में पहुंचे तो लम्बे समय तक ग्राचाम्ल व्रत करने, कठोर परिश्रम करने और रात्रियों में - बड़े लम्बे समय तक जागते रहने के कारण उनके शरीर में रक्तदोष उत्पन्न हो गया । उपरिलिखित दोनों ग्रन्थों के उल्लेख में तीसरा बड़ा अन्तर यह है कि प्रभावक चरित्रकार के उल्लेखानुसार कठोर परिश्रम, रात्रि जागरण और लम्बे समय तक प्राचाम्ल व्रत के परिणामस्वरूप अभयदेव सूरि रक्त दोष से ग्रस्त हो गये । उनसे द्वेष और ईर्ष्या रखने वाले लोगों ने चारों ओर इस प्रकार का प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया कि ग्रभयदेव सूरि ने नवांगों की वृत्तियों में सर्वज्ञ - प्ररूपित वचन से विपरीत अर्थ में सूत्रों की व्याख्या की अतः उनकी इस उत्सूत्र - प्ररूपणा के अपराध से कुपित होकर जिनशासन के अधिष्ठाता देवों ने उनके अंग प्रत्यंग में कुष्ठ रोग उत्पन्न कर दिया । इस प्रकार के लोकापवाद से चिंतित हो म्लानमना अभय देव सूरि ने रात्रि के समय धरणेन्द्र नामक सर्पराज का स्मरण किया । उसी रात में निद्रावस्था में अभयदेव सूरि ने स्वप्न में देखा कि एक भीषण काला नाग अपनी लपलपाती जिह्वा से उनके अंग प्रत्यंगों को, पूरे शरीर को चाट रहा है । जागृत होने पर जब उन्होंने स्वप्न पर चिन्तन किया तो उन्हें प्राभास हुआ कि काले विषधर नाग ने अपनी लपलपाती लाल लाल जिह्वा से उनके शरीर को चाटा है, इससे यही प्रतीत होता है कि अब उनकी ग्रायुष्य का अन्तिम समय आ चुका है । इस प्रकार की स्थिति में आलोचना पूर्वक संलेखना संथारा अंगीकार कर लेना चाहिये । इस प्रकार उन्होंने शीघ्र ही ग्राजीवन चतुविध प्रहार का परित्याग कर देने का मन ही मन विचार कर लिया । किन्तु द्वितीय रात्रि के समय उन्होंने स्वप्न में देखा कि स्वयं धरणेन्द्र उनके सन्मुख उपस्थित होकर कह रहा है:- मैं धरणेन्द्र हूं। मैंने आपके इस रोग को अपनी जिल्ह्वा से चाट कर नष्ट कर दिया है, अब आप पूर्णतः स्वस्थ हैं ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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