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________________ सामान्य श्रु तधर काल खण्ड-२ ] जिनेश्वरसूरि [ १४५ नहीं के बराबर था, यह खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली आदि जैन वाङमय के उल्लेखों से स्पष्टतः विदित होता है। इस प्रकार की स्थिति में चैत्यवासियों को पाटण में पराजित करने से पूर्व वर्द्धमानसूरि का गुजरात में विंचरण और जग्गा ब्राह्मण अथवा शिवदास बुद्धिसागर और कल्याणवती का सरसा नगर में वर्द्धमानसूरि के पास दीक्षित होना सम्भव ही नहीं हो सकता । उपरिलिखित तीनों प्रकार के उल्लेखों से यह तो स्पष्टतः सिद्ध होता है कि श्री जिनेश्वरसूरि ब्राह्मण कुल के नर-रत्न थे और उन्होंने चैत्यवासी परम्परा की आगम विरुद्ध मान्यताओं की काली सघन घन-घटाओं से पूर्णतः पाच्छादित जैन धर्म के विशुद्ध स्वरूप को संसार के समक्ष पुनः प्रकाशित कर जिन शासन की महती सेवा की । वस्तुतः जिनेश्वरसूरि ने चैत्यवासी परम्परा द्वारा चारों अोर प्रसारित बाह्याडम्बर, शास्त्र विरुद्ध श्रमणाचार और प्रागम विरुद्ध मान्यताओं को निरस्त-समाप्तप्रायः कर द्रव्य परम्पराओं द्वारा उत्तरोत्तर मन्द की जा रही जिन शासन की ज्योति को पुनः प्रज्वलित किया। ___ यदि महाप्रतापी जिनेश्वरसूरि ने चैत्यवासी परम्परा की जड़ों को न झकझोरा होता तो आज भाव-परम्परा के, जैन धर्म के विशुद्ध स्वरूप के, सुविहित श्रमण-परम्परा के ओर आगमानुसार विशुद्ध श्रमणाचार के दर्शन सम्भवत: बहु श्रमसाध्य ही नहीं अपितु दुर्लभ हो जाते । आपश्री द्वारा की गई जिनशासन की उल्लेखनीय सेवा जैन इतिहास में सर्वदा स्वर्णाक्षरों में लिखी जाती रहेगी। -:०: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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