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________________ १४४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास--भाग ४ किये जाने पर जिनेश्वरसरि ने कहा :-"हम दोनों भाई वाराणसी नगरी के निवासी श्री सोम ब्राह्मण के पुत्र हैं।" — आन्तरिक आह्लाद प्रकट करते हुए राजपुरोहित ने कहा :-"अहो! आप दोनों मेरे भागिनेय (भान्जे) हो।" राजपुरोहित ने उन दोनों बन्धुओं को बड़े सम्मान के साथ अपने घर पर रक्खा ।' गुर्जरेश दुर्लभराज की राज सभा में जिनेश्वरसरि ने चैत्यवासियों को वाद में पराजित कर अपहिल्लपुर पट्टण में वसतिवास की स्थापना की। इस प्रकार "प्रभावक चरित्र", वृद्धाचार्य प्रबन्धावलि और दानसागर जैन ज्ञान भंडार, बीकानेर की गुर्वावली में श्री जिनेश्वरसूरि का दीक्षित होने से पूर्व का परिचय दिया गया है, वह परस्पर समान नहीं है । प्रभावक चरित्रकार ने जिनेश्वरसूरि और बुद्धि सागरसूरि को मध्यप्रदेश निवासी कृष्ण नामक ब्राह्मण के श्रीधर और श्रीपति नामक पुत्र बताते हुए धारानगरी के श्रेष्ठ लक्ष्मीपति के माध्यम से धारानगरी में उनके दीक्षित होने का उल्लेख किया है। इसके विपरीत वृद्धाचार्य प्रबन्धावली में जिनेश्वरसूरि को गृहस्थावस्था में जग्गा नामक पुष्करणा ब्राह्मण बताया गया है। इसमें जिनेश्वरसूरि का दीक्षास्थल सिद्धपुर और दीक्षा का कारण शुद्धि अशुद्धि के परण में पराजित होना बताया गया है । दान सागर जैन ज्ञान भंडार बीकानेर की उपरिवरिणत (खरतरगच्छ) गुर्वावली में जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि का वाराणसी के सोम नामक ब्राह्मण के पुत्र के रूप में परिचय दिया गया है । इसके साथ ही सरसा नगर में सोमनाथ महादेव के निर्देश से वर्द्धमानसूरि के सम्पर्क में आने और वहीं सरसा नामक नगर में ही वर्द्धमानसूरि के पास उनके दीक्षित होने का उल्लेख है। परस्पर भिन्न इस प्रकार के विवरणों में से वस्तुत: कौनसा विवरण प्रामाणिक है, इस सम्बन्ध में प्रमाणाभाव के कारण सुनिश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता । केवल अनुमान ही किया जा सकता है कि प्रभावक चरित्रकार ने जिनेश्वरसूरि के गृहस्थ जीवन का जो परिचय दिया है, वह संभवतः वास्तविकता के अधिक सन्निकट हो । वृद्धाचार्य प्रबन्धावलि और बीकानेर के दान सागर जैन ज्ञान भंडार की गुर्वावली के एतद् विषयक विवरणों को प्रामाणिक मानने में एक बहुत बड़ी बाधा यह आती है कि दुर्लभराज की अणहिल्लपुर पट्टण की राज सभा में जिनेश्वरसूरि द्वारा चैत्यवासियों को पराजित करने से पूर्व सम्पूर्ण गुजरात, सौराष्ट्र आदि दक्षिणी पश्चिमी प्रदेशों में सुविहित परम्परा के श्रमणों का विचरण - १. तदा तेन ज्ञातं एतौ मम भागिनेयौ । ततश्च बहुमानपुरस्सरं स्वगृहे रक्षितौ । गुर्वावली : १८६२ तक: पो. १०, ग्रं. १५२, पृष्ठ ११ दान सागर जैन ज्ञान भंडार, बीकानेर । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
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