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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
जिनेश्वरसूरि
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रहे थे, उस समय वेद-वेदांग का पारगामी जग्गा नामक पुष्करणा ब्राह्मण सरस्वती नदी में स्नान कर अपने घर की ओर जा रहा था। उस पुष्करणा ब्राह्मण जग्गा ने वर्द्धमानसूरि को देखते ही जैन धर्म की निन्दा करते हुए कहा :-"ये जैन साधु शूद्र वेद बाह्य और अपवित्र हैं।"
उस पुष्करणा ब्राह्मण की बात सुनकर वर्द्धमानसूरि ने शान्त एवं गम्भीर स्वर में कहा :-“हे विद्वान् ब्राह्मण ! बाह्य स्नान से वस्तुतः शुद्धि नहीं होती। तुम्हारे मस्तक पर मृत मछली पड़ी हुई है । इस दशा में तुम स्वयं अनुभव करोगे कि तुम्हारे शरीर की शुद्धि नहीं हुई है।।
मृत मत्स्य की अपने मस्तक पर विद्यमानता की बात सुनकर पुष्करणा पंडित जग्गा ने इसे अपने सम्मान का प्रश्न बनाते हुए कहा :-“यदि मेरे मस्तक पर मृत मछली मिल जाय तो मैं तुम्हारा शिष्य बन जाऊंगा अन्यथा मेरे मस्तक पर मृत मत्स्य के न मिलने की अवस्था में तुम्हें मेरा शिष्य बनना होगा।"
सस्मित शान्त स्वर में वर्द्धमानसूरि ने इस पण अथवा प्रण पर अपनी स्वीकृति देते हुए कहा :-"ठीक है । ऐसा ही हो।"
आवेशाभिभूत पंडित जग्गा ने ज्योंही अपने शिर से शिरोवेष्टन (साफा) उठाया त्यों ही एक मृत मत्स्य जग्गा ब्राह्मण के मस्तक पर से पृथ्वी तल पर गिर पड़ा और परण के अनुसार उसने तत्काल वर्द्धमानसूरि का शिष्यत्व अंगीकार कर लिया ।"
वृद्धाचार्य प्रबन्धावलि के उपरिवरिणत जिनेश्वरसूरि प्रबन्ध में जिनेश्वरसूरि के लघुभ्राता बुद्धिसागर का नामोल्लेख तक नहीं किया गया है, यह वस्तुतः विचारणीय है।
"श्री दान सागर जैन ज्ञान भंडार" बीकानेर की गुर्वावली में श्री जिनेश्वरसूरि का परिचय निम्नलिखित रूप में दिया गया है :
सुविहित पक्ष में संस्थापक श्री देवसरि के प्रशिष्य तथा श्री नेमिचन्द्रसरि के शिष्य श्री उद्योतनसूरि को विशुद्ध श्रमणाचार के प्रतिपालक क्रियापात्र एवं उच्च कोटि के आगम मर्मज्ञ विद्वान् समझकर दूसरे विभिन्न ८३ श्रमण समूहों के स्थविरों के ८३ शिष्य उनके (उद्योतनसूरि के) पास पढ़ने के लिये आये। उसी समय स्थविर मंडली में सर्वाधिक वृद्ध अबोहर प्रदेश के चैत्यवासी आचार्य जिनचन्द्र के शिष्य श्री वर्द्धमान नामक चैत्यवासी साधु चैत्यवास का परित्याग कर उद्योतनरि की सेवा में पहुंचे और उन्हें सुविहित श्रमरण श्रेष्ठ एवं विद्वान् जानकर वे उद्योतनसूरि के शिष्य बन गये ।
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