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प्रकाशकीय
इतिहास वस्तुतः विश्व के धर्म, देश, संस्कृति, समाज अथवा जाति के प्राचीनतम अतीत के परोक्ष स्वरूप को प्रत्यक्ष की भांति देखने का दर्पण तुल्य एकमात्र वैज्ञानिक साधन है। किसी भी धर्म, संस्कृति, राष्ट्र, समाज एवम् जाति के अभ्युदय, उत्थान, पतन, पुनरुत्थान, आध्यात्मिक उत्कर्ष एवम् अपकर्ष में निमित्त बनने वाले लोक नायकों के जीवनवृत्त आदि के क्रमबद्ध-श्रृंखलाबद्ध संकलन-आलेखन का नाम ही इतिहास है। अभ्युदय, उत्थान, पतन की पृष्ठभूमि का एवं उत्कर्ष तथा अपकर्ष की कारणभूत घटनाओं का निधान होने के कारण इतिहास मानवता के लिए भावी पीढ़ियों के लिए दिव्य प्रकाश-स्तम्भ के समान दिशाबोधक-मार्गदर्शक माना गया है। इसलिए सन् १९६५ में यशस्विनी रत्नवंशीय श्रमण परम्परा के आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज ने समुद्र मन्थन तुल्य श्रमसाध्य, समयसाध्य, इतिहास-निर्माण के इस अतीव दुष्कर कार्य को दृढ़-संकल्प के साथ अपने हाथ में लिया और वर्षों तक सतत् अनुसन्धान, विवेचन, लेखन, सम्पादन के पश्चात् इस प्रामाणिक इतिहास का प्रादुर्भाव हुआ।
जैन धर्म का मौलिक इतिहास (चार खण्ड) आध्यात्मिकता के गौरव शिखर आचार्य श्री हस्तीमल जी म.सा. की अद्वितीय और अपूर्व देन है। आचार्यश्री ने जैन संस्कृति के हस्तलिखित ग्रंथागारों और ज्ञान भण्डारों से विपुल ऐतिहासिक सामग्री का चयन कर इस महत् अनुष्ठान को पूरा कर जैन संस्कृति के विकास में एक कीर्तिमान स्थापित किया है। ऐतिहासिक सामग्री के संकलन, ऐतिहासिक कड़ियों को जोड़ने और प्रामाणिक आधार पर समाजशास्त्रीय पद्धति का अनुसरण करके आचार्यश्री ने जैनधर्म के मौलिक इतिहास का भव्य भवन निर्मित किया है।
इसके प्रथम भाग में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव से अंतिम तीर्थंकर महावीर तक का इतिहास है। द्वितीय भाग में वीर निर्वाण संवत् १ से १००० वर्ष के काल का इतिहास प्रस्तुत किया गया। इसके पश्चात् वीर निर्वाण संवत् २००० तक का इतिहास तृतीय और चतुर्थ खण्ड में है।
इसके प्रथम व द्वितीय भाग के तीन-तीन एवं तृतीय भाग के दो संस्करण
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