SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११० ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४ " पणतीसोत्ति श्री विमलचन्द्रसूरि पट्टे पंचत्रिंशत्तमः श्रीउद्योतनसूरिः । सचार्बुदाचल यात्रार्थं पूर्वावनितः समागतः टेलिग्रामस्य सीम्नि पृथोर्वटस्य छायायामुपविष्टो निज पट्टोदय हेतु भव्य मुहूर्तमवगम्य श्री वीरात् चतुष्षष्ठ्यधिक चतुर्दशशत १४६४ वर्षे, विक्रमात् चतु नवत्यधिकनवशत ६६४ वर्षे निजपट्टे श्री सर्वदेव सूरिप्रभृतीनंष्टौ सूरीन् स्थापितवान् । केचित्तु सर्वदेवसूरीमेकमेवेति वदंति । वटस्याधः सूरिपदकरणात् वटगच्छ इति पंचमनाम लोकप्रसिद्धं । प्रधान शिष्य संतत्या ज्ञानादिगुणैः प्रधान चरितैश्च बृहत्वाद् बृहद्गच्छ इत्यपि । ' ३. सहविमलगरिण शिष्य श्री देवविमलगरिण (वि. सं. १६३६ से १६७१) विरचित हीर सौभाग्य नामक काव्य में “श्रीमन्महावीरदेवपट्टपरम्परा" में उद्योतनसूरि के संबंध में लिखा है " : " रेजेऽस्य पट्टे स्मररूपधेयः, सूरीन्द्ररुद्योतननामधेयः । दिग्वारणेन्द्रा इव सूरिचन्द्राः, Jain Education International संजज्ञिरे यत्पदधारिणोऽष्टौ ।। ६४ । मुहूर्तमद्वैतमवेत्य टेली, ग्रामस्य यः सीम्नि वृहद्वटाधः । पार्श्वो गरणीन्द्रानिव काशिकु जे ।। ६५ ।। : उपरिलिखित तीनों पट्टावलियों के उद्धरणों का सारांश यह है "भगवान् महावीर के चौतीसवें और दूसरी मान्यतानुसार पैंतीसवें पट्टधर श्री विमल चन्द्रसूरि के पट्टधर शिष्य ( प्रभु महावीर के ३५वें अथवा ३६वें पट्टधर श्री उद्योतन सूरि ने वि. सं. ६६४ तद्नुसार वीर सं. १४६४ प्राबू पर्वतराज की तलहटी के टेलीग्राम की सीमा में विशाल वटवृक्ष के नीचे रात्रि में शुभ मुहूर्त देख कर सर्वदेव सूरि आदि अपने आठ शिष्यों को आचार्यपद प्रदान किये । महोपाध्याय की स्वोपज्ञवृति सहित "श्री तपागच्छ पट्टावली सूत्रम्" नामक पट्टावली. में कतिपय पूर्वाचार्यों अथवा पट्टवलीकारों की इस मान्यता का भी उल्लेख किया है कि वट वृक्ष के नीचे उद्योतनसूरि ने अपने आठ शिष्यों को नहीं अपितु सर्वदेव नामक केवल एक शिष्य को ही अपने पट्टधर के रूप में आचार्यपद प्रदान किया ।" अस्थापयच्चैत्यतरोस्तलेऽष्टौ, १. पट्टावली समुच्चय भाग १ पृष्ठ ५३ २. "" पृष्ठ १२६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy