SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 123
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ ] [ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली में इससे आगे यद्यपि वि. सं. १३६३ तक के इस संघ के प्राचार्यों के काल की घटनाओं का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है, किन्तु उद्योतनसूरि के सम्बन्ध में उपर्युल्लिखित के अतिरिक्त किसी प्रकार का उल्लेख नहीं किया है कि वे किस परम्परा के, किस गुरु के शिष्य थे, अथवा वर्द्धमानसूरि से पूर्व उनके शिष्य-शिष्या परिवार में कितने साधु थे, कितनी साध्वियां थीं, उनमें प्रमुख के नाम क्या थे आदि । २. "वृद्धाचार्य प्रबंधावलि' के वर्द्धमान सूरि प्रबन्ध में उद्योतनसूरि के नाममात्र के उल्लेख के साथ कहा गया है- "तदनन्तर किसी समय उद्योतनसूरि के पट्टधर अरण्यचारी (वनवासी) गच्छ के नायक आचार्य श्री वर्द्धमानसूरि अप्रतिहत विहारक्रम से एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विचरण करते हुए आबू पर्वतराज की तलहटी में बसे कासद्रह ग्राम में आये'' इसमें वर्द्धमानसूरि के नाम के साथ "अरण्णचारीगच्छनायगा" विशेषण के प्रयोग द्वारा प्रकारान्तर अथवा परोक्ष रूप में उद्योतनसूरि को ही वनवासीगच्छ का आचार्य बताया गया है। क्योंकि वर्द्धमानसूरि तो चैत्यवासी परम्परा से निकल आये थे और उद्योतनसूरि के शिष्य एवं पट्टधर होने के कारण ही वे वनवासीगच्छ के प्राचार्य के रूप में अभिहित किये जाने लगे। इस प्रकार नामोल्लेख के अ. क्त उपरिलिखित प्रबन्ध में भी उद्योतनसू : की गुरु परम्परा, शिष्यपरिवार एवं उन स्वयं के जीवन का कोई परिचय नहीं दिया गया है। ३. बीकानेर के श्रीपूज्य श्री दानसागर जैन ज्ञान भण्डार में उपलब्ध, तीर्थ प्रवर्तन काल से सं० १८६२ तक की एक हस्त-लिखित गुर्वावली में, पो० सं० १० ग्रं० सं० १५२ में वर्द्धमानसूरि के गुरु इन उद्योतनसूरि का परिचय, भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर श्रीसुधर्मा स्वामी के उत्तरवर्ती प्राचार्यों का क्रम सं० के अतिरिक्त अधिकांशतः श्री मुनि सुन्दरसूरि की गुर्वावली पट्ट परम्परा तथा महोपाध्याय श्री धर्मसागरगरिण द्वारा रचित तपागच्छ पट्टावली सूत्र (स्वोपज्ञया वृत्या समलंकृतं) से मिलता जुलता और कतिपय अंशों में नितरां भिन्न तथा अनेक स्थलों पर प्रकाशित पट्टावलियों के अभ्यस्त इतिहास रुचि पाठकों को नितान्त असंगत . प्रतीत होने वाले विवरण के अनन्तर निम्नलिखित रूप में दिया गया है १. अहन्नया कयाई सिरिवद्धमाणसूरि अरश्नचारिगच्छनायगा सिरि उज्जोयण सूरिपट्टधारिणो गामाणुगाम दुइज्जमाणा.............खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली • . पृष्ठ ८६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002074
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1995
Total Pages880
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy