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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] चैत्यवासी परम्परा उन्मूलन तथा पट्टावली पराग संग्रह के ऊपर उद्धत तथ्यों आदि के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि वर्द्धमान सूरी ने चैत्यवासियों द्वारा विकृत किये गये धर्म तथा श्रमणाचार के स्वरूप को पुनः पूर्वधरकालीन विशुद्ध रूप प्रदान करने का जिस दृढ़ संकल्प, निष्ठा एवं उत्साह के साथ बीड़ा उठाया था, उनकी दो तीन पीढ़ी पश्चात् ही उनके उत्तरवर्ती आचार्यों में वह उत्साह शनैः शनैः शिथिल अथवा मन्द पड़ता गया। धार्मिक कार्य-कलापों एवं अनुष्ठानों में प्रविष्ट बाह्याडम्बर को निर्मूल करने एवं जैन समाज पर छाये हुए चैत्यवासियों के वर्चस्व को समाप्त करने के उद्देश्य से वर्द्धमानसूरि ने चैत्यवासी परम्परा का परित्याग किया था । विश्व कल्याणकारी जैन धर्म के विशुद्ध आध्यात्मिक मूल स्वरूप एवं श्रमण परम्परा के प्राण-स्वरूप दुश्चर श्रमणाचार की छाप जन-जन की मनोभूमि पर अंकित करने के लिए वर्द्धमानसूरि ने जीवन भर प्रयास किया। उनके पश्चात् अनुक्रमशः उनके पट्ट पर आसीन होने वाले प्राचार्यों ने अपने पूर्वाचार्य वर्द्धमानसूरि द्वारा आगमानुसारी जिनधर्म के स्वरूप को पुनः प्रतिष्ठित करने के उद्देश्य से प्रारम्भ किये गये चैत्यवास-विरोधी अभियान को उत्तरोत्तर आगे की ओर बढ़ाया। वर्द्धमानसूरि के पट्ट पर अनुक्रमशः आसीन हुए उनके शिष्य, प्रशिष्य, प्रप्रशिष्य आचार्यों ने गुजरात, राजस्थान, मालवप्रदेश आदि प्रदेशों में अप्रतिहत विहार कर जन-जन के समक्ष धर्म और श्रमणाचार के आगमिक स्वरूप को प्रस्तुत कर चैत्यवासी परम्परा के न केवल वर्चस्व को ही समाप्त किया अपितु उसके अस्तित्व तक को भी घोर संकट में डाल दिया।
वनवासी प्राचार्य उद्योतनसूरि से विशुद्ध श्रमण दीक्षा (उप-सम्पदा) एवं शास्त्रज्ञान प्राप्त कर वर्द्धमानसूरि ने शिथिलाचार एवं द्रव्य परम्पराओं के दलदल में धंसे धर्मरथ का बड़े साहस के साथ उद्धार कर धर्म के विशुद्ध स्वरूप को पुनः प्रतिष्ठापित किया, वसतिवास को पुनः प्रारम्भ किया।' उसके लिये प्रत्येक जैन सहस्राब्दियों तक उनका ऋणी रहेगा।
वर्द्धमान सूरि की यह यशस्विनी परम्परा आग चलकर “खरतरगच्छ” के नाम से विख्यात हुई । इस परम्परा के प्रमुख प्राचार्यों के जीवन और महत्त्वपूर्ण कार्य-कलापों पर क्रमश: यथाशक्य यथास्थान प्रकाश डालने का प्रयास किया जायगा।
१. ततः प्रभृते संजज्ञे, वसतीनां परम्परा ।
महद्भिः स्थापितं वृद्धिमश्नुते नात्र संशयः ॥८६॥
-प्रभावक चरित्र, पृष्ठ १६३ ।।
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