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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
हैं और भेंट-पूजा लेकर आते हैं, इस प्रकार के कुलगुरुषों की अनेक बहियां हमने देखी और पढ़ी हैं। उनमें बारहवीं शती के पूर्व की जितनी भी बातें लिखी गई हैं, वे लगभग सभी दन्तकथा मात्र हैं।' इतिहास से उनका कोई सम्बन्ध नहीं, गोत्रों और कुलों की बहियां लिखी जाने के बाद की हकीकतों में अांशिक तथ्य अवश्य देखा गया है, परन्तु अमुक हमारे पूर्वज प्राचार्य ने तुम्हारे अमुक पूर्वजों को जैन बनाया था और उसका अमुक गौत्र स्थापित किया था, इन बातों में कोई तथ्य नहीं होता, गोत्र किसी के बनाने से नहीं बनते आजकल के गोत्र उनके बडेरों के धन्धों रोजगारों के ऊपर से प्रचलित हुए हैं, जिन्हें हम "अटक" कह सकते हैं। खरतरगच्छ की पट्टावलियों में अनेक प्राचार्यों के वर्णन में लिखा मिलता है कि अमुक को आपने जैन बनाया और उसका यह गोत्र कायम किया, अमुक आचार्य ने इतने लाख और इतने हजार अजैनों को जैन बनाया, इस कथन का सार मात्र इतना ही होता है कि उन्होंने अपने उपदेश से अमुक गच्छ में से अपने सम्प्रदाय में इतने मनुष्य सम्मिलित किये । इसके अतिरिक्त इस प्रकार की बातों में कोई सत्यता नहीं होती, लगभग आठवीं-नौवीं शताब्दी से भारत में जातिवाद का किला बन जाने से जैन समाज की संख्या बढ़ने के बदले घटती ही गई है । इक्का-दुक्का कोई मनुष्य जैन होगा तो जातियों की जातियाँ जैन समाज से निकल कर अन्य धार्मिक सम्प्रदायों में चली गई हैं, इसी से तो करोड़ों से घटकर जैन समाज की संख्या आज लाखों में आ पहुंची है। ऐतिहासिक परिस्थिति उक्त प्रकार की होने पर भी बहुतेरे पट्टावलि लेखक अपने अन्य आचार्यों की महिमा बढ़ाने के लिये हजारों और लाखों मनुष्यों को नये जैन बनाने का जो ढिंढोरा पीटते जाते हैं, इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता, इसलिये ऐतिहासिक लेखों, प्रबन्धों और पट्टावलियों में इस प्रकार की अतिशयोक्तियों और कल्पित कहानियों को स्थान नहीं देना चाहिये ।"२ ..
खरतरगच्छ की विभिन्न पट्टावलियों में उल्लिखित परस्पर एक दूसरी से भिन्न तथ्यों, खरतर गच्छ वृहद् गुर्वावली में उल्लिखित अतिशयोक्तिपूर्ण विवरणों, जिनेश्वर सूरी के उत्तरवर्ती काल में अश्वारोही सैनिकों के दलबल के मध्य राजकीय छत्र से अलंकृत प्राचार्यों के, विविध वाद्ययन्त्रों के तुमुल घोष के बीच बड़े आडम्बर एवं राजसी ठाट-बाट के साथ नगर प्रवेश आदि के लालित्यपूर्ण उल्लेखों
१. इससे बहुत पूर्व राजा आम के शासन काल में, विक्रम सम्वत् ७७५ में ही कुल गुरुओं ने सर्वसम्मत नियम बनाकर अपनी-अपनी बाडेबन्दी प्रारम्भ कर दी थी।
--देखिये जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग ३, पृष्ठ ५२८ से ५३१ । २. पट्टावली पराग संग्रह, पृष्ठ ३८० से ३८२
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