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________________ सम्मतियां ] [ ८६७ निष्ठावान् इतिहास का विद्वान् प्रागे बढ़ने का साहस नहीं कर पा रहा था । इस ग्रन्थ में मौलिकता का प्राधान्य है । साहित्यसाधना के लिए समर्पित सन्त ही ऐसे महान् कार्य कर सकते हैं । परिस्थितियों का चित्रण इस रचना की एक विशेषता है। इस इतिहास से ऐसे कई तथ्य प्रकाश में भाए हैं जो ऐतिहासिक पीठिका को बलवती बनाते हैं जिससे प्रसिद्ध इतिहासकारों को भी अपनी मान्यताओं को परिवर्तित करना होगा । श्राचार्य श्री की यह साहित्यसाधना युग-युगों तक स्मरणीय रहेगी। ऐसे महिमामय ग्रन्थ को प्रकाशित कर जैन इतिहास समिति साधुवाद के सर्वथा योग्य है । ... जैन धर्म का मौलिक इतिहास, तीर्थंकर खण्ड मैंने श्राद्योपान्त पढ़ा | जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों के सम्बन्ध में प्रचुरमात्रा में नये तथ्यों का उद्घाटन एवं विवेचन हुआ है । इस इतिहास की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें उपलब्ध समस्त सामग्री का उपयोग तथा दिगम्बर एवं श्वेताम्बर दोनों परम्पराम्रों की मान्यताओं का प्रतिपादन किया गया है । समीक्षा डॉ० महावीर सरन जैन एम. ए., डी. फिल. डी. लिट्. अध्यक्ष- स्नातकोत्तर हिन्दी एवं भाषा विज्ञान विभाग जबलपुर विश्वविद्यालय .... "प्रस्तुत खण्ड में चौबीस तीर्थंकरों के सम्बन्ध में प्राचीन व आधुनिक ग्रन्थों के प्रकाश में अनुशीलनात्मक प्रामाणिक और सुव्यवस्थित सामग्री प्रस्तुत की गई है और साथ ही उन बातों का निरसन किया गया है जो भ्रामक थीं । प्राचार्य श्री ने तय किया है कि वर्तमान ग्रन्थ सामान्य पाठकों के लिए सरल, सुबोध शैली में प्रस्तुत किया जाय, उन्हें इस प्रयास में पूर्ण सफलता मिली है। परिशिष्ट में जो चौबीस तीर्थंकरों के सम्बन्ध में मलभ्य ऐतिहासिक सामग्री वर्गीकृत ढंग से दी है, उसने ग्रन्थ की महत्ता को कई गुना बढ़ा दिया है । प्राकाशवाणी जयपुर समीक्षक-स्व० श्री सुमनेश जोशी Jain Education International जैन परम्परा के तीर्थंकरों के सम्बन्ध में एक साथ इतने व्यवस्थित रूप से संभवत: पहली बार ही इतिहास ग्रन्थ तैयार किया गया है। जैन और जैनेतर उन सभी लोगों के लिये ग्रन्थ प्रत्यन्त महत्व का है जो जैन परम्परा के चोबीसों तीर्थंकरों के जीवनवृत्त, कठोर तप साधना और उनके उदात्त चरित्रों को जानना चाहते हैं । अनेकान्त श्री परमानन्द जैन शास्त्री ग्रन्थ में यथास्थान मतभेदों और दिगम्बर मान्यताओं का निर्देश किया गया है । लेखन शैली में कहीं भी कटुता और साम्प्रदायिक प्रभिनिवेश का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
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