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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ३
कुछ भ्रांतियों (मांसाहार, पासत्थ, श्रेणिक और कूणिक के धर्म आदि से सम्बन्धित) का निरसन भी किया गया है। भ० महावीर के निर्वाण से २२ वर्ष पश्चात् बुद्ध के निर्वाण काल को अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया गया है।
पूज्य श्री की सैद्धान्तिक दृष्टि इस लेखन में बराबर स्थिर रही है । भाषा प्रवाहपूर्ण और सरस है। कथा रस-प्रेमी और इतिहास-प्रेमी दोनों की रुचि को सन्तुष्ट करने की सामर्थ्य है--इस ग्रंथ में । इतनी विशाल पृष्ठभूमि पर तीर्थंकरों के विषय में एक ही ग्रन्थ में प्रमाण पुरस्सर प्रालेखन का मेरी दृष्टि में यह प्रथम व्यवस्थित प्रयास है । ऐतिहासिक अन्वेषकों के लिए, यह ग्रन्थ बड़ा सहायक सिद्ध हो सकता है।
इसमें पहली बार गवेषणात्मक ढंग से सारी सामग्री को व्यवस्थित किया गया है। इसी क्रम में जनेतर स्रोतों का भी उदारतापूर्वक उपयोग किया गया है और जैन दृष्टि से लिखते हए तथ्यों की अतिरंजता से बचा गया है । संक्षेप में कहें तो ग्रन्थ में इतिहास के परिप्रेक्ष्य में तीर्थंकरों के बारे में उपलब्ध तथ्यों, साक्ष्यों आदि का समावेश करते हए एकांगी दृष्टिकोण न अपना कर सही मूल्यांकन करने में सफलता प्राप्त की है।
तथ्यों के प्रतिपादन की शैली सुबोध और रोचक है, जो लोक भाषा की समन्वित छटा साधारण पाठकों को भी सम्पूर्ण ग्रन्थ पढ़ने के लिये प्राकर्षित करती है। हमें विश्वास है कि इतिहास के विद्यार्थी की तरह ही साधारण पाठकों द्वारा भी ग्रन्थ का पठन-पाठन किया जायेगा।
मुद्रण निर्दोष, आकर्षक और कलात्मक है ।
मधुकर मुनिजी
"इतिहास का प्रालेखन वस्तुतः सरल नहीं माना जाता। इसके पालेखन में प्रमुख प्रावश्यकता होती है तटस्थता की ओर सजग रहने की।
अनेक पुरातन व नव्य भव्य ग्रंथों का अध्ययन-अवलोकन करके प्राचार्य श्री जी ने जो यह ग्रंथ तैयार किया है, उसमें वे काफी सफल हुए हैं, ऐसा मेरा अभिमत है।
परम विदुषी महासती जी श्री उज्ज्वलकुमारी जी महाराज सा.....
तीर्थंकरों के जीवन की प्रामाणिक सामग्री प्राप्त कराने के लिये प्राचार्य श्रीजी ने जो महान् परिश्रम उठाया है, उसे देख कर कोई भी व्यक्ति धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता।
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