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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग - ३
विशेष पर आक्षेप रूपी या किसी के भी हृदय को दुखाने वाले शब्दों अथवा भाषा का प्रयोग कहीं भी नहीं पाने पावे ।
फिर भी सत्य का उद्घाटन एवं प्रतिपादन करते हुए कहीं कोई अप्रिय या कटु बात लिखने में प्राई हो और उससे किसी के मन पर चोट लगी हो तो हम अपने अन्तःकरण से उसके लिये खेद प्रकट करते हुए जिनेश्वरदेव की साक्षी से क्षमा याचना करते हैं ।
प्राशा है तत्व जिज्ञासु एवं इतिहास रसिक पाठक वृन्द गुणग्राही होकर शब्दों के कलेवर को न पकड़ते हुए केवल भावों की ओर अपना ध्यान रक्खेंगे एवं आलोचना करते समय भी सत्यान्वेषी तटस्थ दृष्टि से वे सब विषय वस्तु को देखेंगे । शिष्टाचार एवं भद्र व्यवहार को नहीं भूलेंगे ।
हां, तमसावृत्त समझे जाने वाले इस कालावधि के इतिहास को अन्धरे से उजाले में लाने जैसे इस कठोर बौद्धिक श्रम साध्य कार्य में स्खलनात्रों का होना सहज सम्भाव्य है । ऐसी स्थिति में जहां कहीं कोई ऐसी स्खलना पाठकगरण के दृष्टिगोचर हो तो उससे हमें मंत्री भाव से अवगत कराने का कष्ट वे अवश्य करेंगे, ऐसी आशा है, ताकि आगे उस पर विचार किया जा सके ।
गच्छतः स्खलनं भूमौ भवत्येव प्रमादतः । हसन्ति दुर्जनास्तत्र, समादधति सज्जनाः ।।
सुज्ञेष किं बहुना ।
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