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[ जैन धर्म का मोलिक इतिहास भाग ३
आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी अमर कृतियों में मूल राज की भूरि भूरि प्रशंसा कर उसकी कीति को चिरस्थायिनी बना दिया है । उदाहरण के रूप में प्राचार्य हेमचन्द्र का, मूलराज की प्रशंसा में, एक श्लोक यहां प्रस्तुत किया जा रहा है :
हरिरिव बलिबन्धनकरस्त्रिशक्ति युक्त: पिनाकपाणिरिव,
कमलाश्रयश्च विधिरिव, जयति श्री-मूलराज-नृप : ।।
मलराज ने अपने पुत्र चामण्डराज को उसका शिक्षण समाप्त होते ही युवराजपद प्रदान कर प्रशासनिक कार्यों में उसे अपने मार्गदर्शन में कुशल बनाया। अन्त में मूलराज चामुण्डराज का राज्याभिषेक कर स्वयं राजकार्यों से पूर्णतः निवृत्त हो गया । अन्त में अपने चरणांगुष्ठ में कुष्ठ रोग के लक्षण देख कर मूलराज को संसार से विरक्ति हो गई । उसने भावसन्यास ग्रहण कर अन्नजल का त्याग कर इंगितमरण का वरण किया। स्वेच्छापूर्वक मूलराज द्वारा सन्यासमरण का वरण किये जाने के सम्बन्ध में प्राचार्य मेरुतुग ने अपने ग्रन्थ प्रबन्ध चिन्तामरिण में निम्नलिखित रूप में उल्लेख किया है
___ "इत्थं तेन राज्ञा पंचपंचाशद्वर्षाणि निष्कण्टक साम्राज्य विधाय सन्ध्योनीराजनाविधेरनन्तरं राज्ञा प्रसादीकृतं ताम्बलं वण्ठेन करतलाभ्यामादाय तत्र कृमिदर्शनात्तत्स्वरूपमवगम्य वैराग्यात्संन्यासांगीकारपूर्वं व दक्षिण चरणांगुष्ठे वह्नियोजनापूर्वं गजदानप्रभृतीनि महादानानि ददानोऽष्टभिदिनैः ।"
उद्ध मकेशं पदलग्नमग्निमेकं विषेहे विनयकवश्यः । प्रतापिनोऽन्यस्य कथैव का यद्विभेद भानोरपि मण्डलं यः ।। इत्यादिभिः स्तुतिभिः स्तूयमानो दिवमारुरोह ।
अथ सं० ६६८ पूर्व वर्षाणि ५५ राज्यं मलराजेन चक्रे ।' इस प्रकार विशाल अरणहिलपुरपट्टन साम्राज्य का संस्थापक महाराजाधिराज मूलराज सोलंकी ५५ वर्ष के अपने सुदीर्घकालीन शासन में गुजरात को सर्वतः समृद्ध और शक्तिशाली बनाने के पश्चात् वि०सं० १०५३ में परलोकगामी हुआ।
' प्रबन्ध चिन्तामणि पृष्ठ २६
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