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श्राचार्य विद्यानन्द ( ग्रन्थकार )
वीर निर्वाण की चौदहवीं शताब्दी में गंगवंशीय महाराजा शिवमार ( ई० सन् ८०४ से ८१५ ) और उसके भ्रातृज राछमल्ल - सत्यवाक्य (८६६ - ८६३) के शासनकाल में किसी समय प्राचार्य विद्यानन्दि नामक एक महान् ग्रंथकार हुए हैं । इन्होंने निम्नलिखित ग्रन्थों की रचना कर जैनसाहित्य की समृद्धि में अभिवृद्धि की :
( १ ) तत्वार्थश्लोकवार्तिक । यह तत्वार्थ सूत्र की विशाल टीका है । इस दार्शनिक ग्रन्थ में प्राचार्य विद्यानन्दि ने वेदान्त के प्रकाण्ड विद्वान् कुमारिल्ल भट्ट श्रौर बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति द्वारा जैनदर्शन के खण्डन में प्रस्तुत की गई युक्तियों को बड़े ही सबल तर्कों से निरस्त किया है ।
(२) प्रष्टसहस्री
(३) युक्त, यनुशासनालंकार
(४) प्राप्तपरीक्षा
(५) प्रमाण परीक्षा
(६) पत्र परीक्षा
(७) सत्यशासन परीक्षा
(८) श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र और
(६) विद्यानन्द महोदय ( श्रनुपलब्ध ) ।
ये किस परम्परा के और किसके शिष्य थे- इस सम्बन्ध में कहीं कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता किन्तु इनकी विद्वत्ता पूर्ण कृतियों से इनके प्रकाण्ड पाण्डित्य का परिचय मिलता है। वे महान् दार्शनिक, जैन दर्शन के साथ-साथ अन्य दर्शनों के भी पारगामी विद्वान्, महान् कवि, महान् व्याख्याता और भक्तिरस से ओतप्रोत एवं तरंगित मानस के धनी महान् स्तुतिकार भी थे ।
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