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वीर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ]
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आपुलिय और गोप्य ये दोनों शब्द यापनीय शब्द के ही पर्यायवाची शब्द हैं । आपुलियों अर्थात् यापनीय संघ के अनुयायियों का किसी समय में यह ग्राम अथवा गिरि गुहा, केन्द्रस्थल, साधनास्थल अथवा कार्य क्षेत्र रहा हो। इस सम्बन्ध में तमिल भाषा के विशेषज्ञ जैन विद्वान् यदि शोधपूर्ण प्रकाश डालें तो ऐतिहासिक दृष्टि से उनका वह प्रयास प्रशंसनीय होगा । पेरियाकुलम् ताल्लुक में अवस्थित 'उत्तमपालैयम्' में जो जैन मूर्तियां उट्टंकित हैं, उनके नीचे प्रज्जन्दि के नाम के साथ-साथ प्राचार्य अरिट्ठनेमि - पेरियार और उनके गुरु अष्टोपवासीगल के नाम भी खुदे हुए हैं । कदम्बहल्लि से प्राप्त शक सं. १०४० के एक स्तम्भलेख में यापनीय परम्परा के प्राचीन सूरस्थगरण के प्राचीन प्राचार्यों की जो पट्टावली उपलब्ध हुई है, उसमें आचार्य प्रष्टोपवासी को सूरस्थगरण का पांचवां प्राचार्य बताया गया है ।" इससे यह विचार उत्पन्न होता है कि अज्जरणन्दि के साथ जिन प्राचार्य श्रष्टोपवासिगल का नाम उपरिवरिणत मूर्तियों के नीचे उटंकित है, वे प्राचार्य कहीं यापनीय परम्परा के प्राचार्य तो न हों। इस दृष्टि से भी कोंगर पुलियमंगलम् नामक इस ग्राम के सम्बन्ध में शोध की प्रावश्यकता है कि कहीं इस गांव का नामकरण प्रापुलिय संघ श्रर्थात् यापनीय संघ से तो सम्बन्धित नहीं है । अस्तु ।
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तिरुमंगलम् ताल्लुक के इस कोंगर पुलियमंगलम् नामक ग्राम के पास के पर्वत पर जो चट्टानों को काट काट कर मुनियों के लिये शिला पलंग बनाये गये हैं, इसी पहाड़ के ढाल पर अज्जरगन्दि की सिद्धासनस्थ एक बहुत सुन्दर मूर्ति चट्टान को काट कर बनाई गई है। इस मूर्ति के चारों श्रोर चट्टान को छाजे के प्राकार में ऐसे कौशल से तराशा गया है, जिससे कि वर्षा के पानी से मूर्ति की पूर्ण रूप से रक्षा हो सकें । इस मूर्ति के नीचे "श्रीमज्जगन्दि" उट्टंकित है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रज्जन्दि के किन्हीं शिष्यों ने प्रथवा उपासकों ने प्रज्जरगन्दि के स्वर्गस्थ होने पर इसका निर्माण करवाया हो ।
प्रज्जन्दि ने बहुत बड़ी संख्या में दक्षिणापथ के अनेक पर्वतों के शिलाखण्डों को कटवा कटवा कर जैनमूर्तियों का निर्माण करवाया किन्तु न तो स्वयं और न उनके शिष्यों ने ही उनका कोई परिचय उट्टकित करवाया। सभी मूर्तियों के नीचे केवल अज्जरणन्दि का नाम ही उट्टं कित है। इससे अनुमान किया जाता है कि प्रज्जन्दि अपने समय के सर्वाधिक प्रसिद्ध लोकप्रिय श्राचार्य थे, इसी कारण उनके नाम के अतिरिक्त उनका कोई परिचय उनकी ऐतिहासिक कृतियों के नीचे उट्टं कित नहीं करवाया गया ।
इस प्रकार की स्थिति में प्राचार्य अज्जरणन्दि के सत्ताकाल, उनकी गुरुपरम्परा, उनके जन्मस्थान श्रादि के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। उनके द्वारा उट्टं कित करवाई गई जैन प्रतिमाओं की उट्टंकन शैली वट्टेलुतु वर्णमाला
प्रस्तुत ग्रंथ ( जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ३) का पृष्ठ २४२
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