SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 845
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वोर सम्वत् १००० से उत्तरवर्ती प्राचार्य ] [ ७७ की किरण का संचार करने के लिये घोरातिघोर कष्ट सहन कर भी प्रज्जणन्दि ने जो कार्य किये, उनके उन कार्यों की यशोगाथाएँ दक्षिणा पथ की अनेक पर्वतमालानों की चट्टानों पर, अनेक गिरिगुहाओं में आज भी पढ़ी जा सकती हैं। विद्वान्, वाग्मी और प्रतिभाशाली आचार्य अज्जणन्दि ने तमिलनाडु के पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक सागरतट पर्यन्त के सभी क्षेत्रों में घूम घूम कर जैनधर्म का प्रचार किया, अनेक पर्वतों की शिलाओं पर तीर्थंकरों और उनके यक्षों की शिलाचित्रों के रूप में मूर्तियां उटैंकित करवाई। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने (अज्जणन्दि ने) धर्म प्रचार का अपना यह अभियान उत्तरी आर्काट जिले से प्रारम्भ किया, जहां अप्पर और ज्ञान सम्बन्धर द्वारा धर्मयुद्ध के रूप में प्रारम्भ किये गये शैव मत के अभियान के समय भी जैनधर्म का पर्याप्त वर्चस्व रहा था। उत्तरी आर्काट जिले के वल्लीमले नामक पर्वत की चट्टानों पर जिनेश्वरों के चित्र उटैंकित करवाये ।' तदनन्तर अज्जणन्दि ने शैव मतावलम्बियों के सुदृढ़ गढ़ मदुरा में जैनधर्म का प्रचार करना प्रारम्भ किया। उन्होंने मदुरा जिले में स्थित प्रानैमलै, ऐवरमल, अलगरमल, करूंगालक्कुड़ी और उत्तमपालैयम पर्वतों की चट्टानों पर तीर्थंकरों और यक्षों आदि की मूर्तियां उटंकित करवाई। मदुरा जिले के अनेक पर्वतों पर प्रज्जणन्दि द्वारा उकित करवाई हुई तीर्थंकरों की मूर्तियों को देखने पर ऐसा अनुमान किया जाता है कि अज्जणन्दि ने मदुरा जिले में पर्याप्त समय तक रह कर जैनधर्म का प्रचार-प्रसार किया। तदनन्तर अज्जणन्दि दक्षिणापथ के गांव गांव में लोगों को जैनधर्म के विश्वकल्याणकारी सारभूत सिद्धान्तों का उपदेश देते हुए तिन्नेवेली जिले में पहुंचे । वहां उन्होंने ऐरूवाड़ी की प्राकृत गुफाओं में इरात्तिपोट्टाइ नामक चट्टान पर तीर्थंकरों की मूर्तियां बनवाई। ___तिन्नेवेली जिले से आगे बढ़ते हए अज्जणन्दि ने गांव गांव में लोगों को जैनधर्म के महान सिद्धान्तों के प्रति आस्थावान बनाया और दक्षिण दिशा में प्रार्यधरा के अन्तिम छोर त्रावनकोर राज्य में प्रवेश किया। वहां अपने प्रभावकारी उपदेशों से अनेक लोगों को जिनमार्ग में स्थिर कर जैनधर्म का प्रचार प्रसार किया। वे पर्याप्त समय तक त्रावणकोर राज्य में जैनधर्म का प्रचार करते रहे। अनेक लोगों को जैनधर्मानुयायी बना कर अज्जणन्दि ने चित्राल के पास तिरुच्चारणत्तमले पर्वत माला पर चट्टानों को कटवा कर तीर्थंकरों, और तीर्थंकरों के यक्षों की मूर्तियां उम्र कित करवाई। यहां उन्होंने अपने गुरु की भी मूर्ति बनवाई। यहां पर की मूतियों के नीचे वत्तेलुत्त वर्णमाला में आर्यनन्दि का जो नाम लिखा हमा है वह "प्रच्चणन्दि' पढ़ा जाता है। ' जैन शिलालेख संग्रह भाग २, लेख सं० १३४-१३५, पृष्ठ १५७-५८ २ एन्युअल रिपोर्ट प्रान साउथ इण्डियन एपिग्राफी, १६१६, पृष्ठ ११२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002073
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2000
Total Pages934
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Parampara
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy